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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 94

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 3
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९४

    एन्द्र॒वाहो॑ नृ॒पतिं॒ वज्र॑बाहुमु॒ग्रमु॒ग्रास॑स्तवि॒षास॑ एनम्। प्रत्व॑क्षसं वृष॒भं स॒त्यशु॑ष्म॒मेम॑स्म॒त्रा स॑ध॒मादो॑ वहन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒न्द्र॒ऽवाह॑: । नृ॒ऽपति॑म् । वज्र॑ऽबाहुम् । उ॒ग्रम् । उ॒ग्रास॑: । त॒वि॒षास॑: । ए॒न॒म् ॥ प्रऽत्व॑क्षसम् । वृ॒ष॒भम् । स॒त्यऽशु॑ष्मम् । आ । ई॒म् । अ॒स्म॒ऽत्रा । स॒ध॒ऽमाद॑: । व॒ह॒न्तु॒ ॥९४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एन्द्रवाहो नृपतिं वज्रबाहुमुग्रमुग्रासस्तविषास एनम्। प्रत्वक्षसं वृषभं सत्यशुष्ममेमस्मत्रा सधमादो वहन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इन्द्रऽवाह: । नृऽपतिम् । वज्रऽबाहुम् । उग्रम् । उग्रास: । तविषास: । एनम् ॥ प्रऽत्वक्षसम् । वृषभम् । सत्यऽशुष्मम् । आ । ईम् । अस्मऽत्रा । सधऽमाद: । वहन्तु ॥९४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (इन्द्रवाहः) परमेश्वर को अपने शरीर-रथों में वहन करनेवाले, (उग्रासः) कर्त्तव्यों में सुदृढ़, (सधमादः) परमेश्वर के साथ रह कर आनन्द भोगनेवाले, (तविषासः) महान् आत्माएँ—(नृपतिम्) नर-नारियों के स्वामी, (वज्रबाहुम्) न्यायवज्र द्वारा पापों को विलोडनेवाले, या वज्रहस्त राजा के समान न्यायवज्रधारी, (उग्रम्) पापों के प्रति उग्ररूप, (प्रत्वक्षसम्) अविद्या-रागद्वेष को तनूकृत करनेवाले, (वृषभम्) आनन्दरसवर्षी, (सत्यशुष्मम्) वास्तव में अविद्या आदि का शोषण करनेवाले (एनम्) इस परमेश्वर को—(अस्मत्रा) हम शिष्य उपासकों में (आ वहन्तु) प्राप्त कराएँ, उसका प्रत्यक्ष दर्शन कराएँ।

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