अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
सूक्त - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
प्र॒तीच्यां॑ दि॒शि भ॒सद॑मस्य धे॒ह्युत्त॑रस्यां दि॒श्युत्त॑रं धेहि पा॒र्श्वम्। ऊ॒र्ध्वायां॑ दि॒श्यजस्यानू॑कं धेहि दि॒शि ध्रु॒वायां॑ धेहि पाज॒स्य॑म॒न्तरि॑क्षे मध्य॒तो मध्य॑मस्य ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒तीच्या॑म् । दि॒शि । भ॒सद॑म् । अ॒स्य॒ । धे॒हि॒ । उत्त॑रस्याम् । दि॒शि । उत्त॑रम् । धे॒हि॒ । पा॒र्श्वम् । ऊ॒र्ध्वाया॑म् । दि॒शि । अ॒जस्य॑ । अनू॑कम् । धे॒हि॒ । दि॒शि । ध्रु॒वाया॑म् । धे॒हि॒ । पा॒ज॒स्य᳡म् । अ॒न्तरि॑क्षे । म॒ध्य॒त: । मध्य॑म् । अ॒स्य॒ ॥१४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रतीच्यां दिशि भसदमस्य धेह्युत्तरस्यां दिश्युत्तरं धेहि पार्श्वम्। ऊर्ध्वायां दिश्यजस्यानूकं धेहि दिशि ध्रुवायां धेहि पाजस्यमन्तरिक्षे मध्यतो मध्यमस्य ॥
स्वर रहित पद पाठप्रतीच्याम् । दिशि । भसदम् । अस्य । धेहि । उत्तरस्याम् । दिशि । उत्तरम् । धेहि । पार्श्वम् । ऊर्ध्वायाम् । दिशि । अजस्य । अनूकम् । धेहि । दिशि । ध्रुवायाम् । धेहि । पाजस्यम् । अन्तरिक्षे । मध्यत: । मध्यम् । अस्य ॥१४.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(अस्य) इस अज के (भसदम्१) गुदा भाग को (प्रतीच्याम्, दिशि) पश्चिम दिशा में (धेहि) स्थापित कर, (उत्तरम्, पार्श्व) उत्तर पार्श्व को (उत्तरस्याम्, दिशि) उत्तर दिशा में (धेहि) स्थापित कर। (अजस्य) अज के (अनूकम्) पृष्ठभाग को (ऊर्ध्वायाम, दिशि) ऊर्ध्व दिशा में (धेहि) स्थापित कर, (ध्रुवायाम्, दिशि) ध्रुवा दिशा में (पाजस्यम्) पेट को (धेहि) स्थापित कर, (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में अर्थात् (मध्यतः) अन्तरिक्ष के मध्य में (मध्यम्) शरीर के मध्य भाग को (धेहि) स्थापित कर।
टिप्पणी -
[अज के निर्जीव शरीर की चिता पर स्थापन-विधि से यह स्पष्ट है कि शरीर के पृष्ठभाग को तो ऊर्ध्वा दिक् में अर्थात् आकाश की ओर, तथा पेट को ध्रुवादिक् में अर्थात् पृथिवी पर स्थापित किया है। यह विधि सर्वसाधारण शवस्थापन विधि के विपरीत है। कारण यह है कि यह 'अज' मृत्यु के पश्चात् मुक्त होकर ऊर्ध्वा दिक् की ओर ही प्रयाण करता है। पृष्ठवंश में एक सुषुम्ना नाड़ी होती है जिसमें आठ चक्र होते हैं "अष्टाचका नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" (अथर्व० १०।२।३१)। आठ चक्र हैं: मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, ललना, आज्ञा, सहस्रार। अनाहत चक्र का स्थान हृदय के समीप है। एक 'निम्न मानस चक्र' (lower minus चक्र plexes) भी है। इनमें से अनाहतचक्र हृदय को नियन्त्रित करता है जोकि जीवात्मा और परमात्मा का निवास स्थान है। इस निवास-स्थान में जीवात्मा परमात्मा की उपासना द्वारा, मोक्ष प्राप्त कर शरीर त्यागता है और पृष्ठवंशस्थ सुषुम्ना नाड़ी के इस अनाहत स्थान से जीवात्मा ऊर्ध्व गति को प्राप्त होता है। अनाहत चक्र बद्ध आत्माओं को, निज अनखिली अर्थात् अविकसित अवस्था में घेरे रहता है, और मुक्त आत्माओं के लिए ऊर्ध्वमुखरूप में खिल जाता है, और मुक्तात्मा इस खिले कमल द्वारा ऊर्ध्व गतिक हो जाते हैं। इसलिए मुक्तात्मा के शव के पृष्ठभाग को ऊर्ध्वादिक् की ओर स्थापित किया जाता है (देखो, "पातञ्जलयोगप्रदीप" द्वारा, स्वामी ओमानन्द जी तीर्थ, आर्यसाहित्य मण्डल लि०, अजमेर)। यथा अनाहतचक्र कमल के सदृश है, खिलकर वह १२ पंखड़ियों वाला हो जाता है। हृदय है जीवात्मा और परमात्मा का निवास-स्थान। तथा- अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।। तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते। तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद् वै ब्रह्मविदो विदुः॥ प्र भ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम्। पुरं हिरण्ययों ब्रह्मविवेशापराजिताम् ॥— अथर्व० १०।२।३१-३३ (यक्षमात्मन्वत् =यक्ष अर्थात् यजनीय तथा पूजनीय (चुरादि:) ब्रह्म जोकि आत्मन्वत् है, आत्मा अर्थात् जीवात्मावाला है, जीवात्मा में प्रविष्ट है, या जीवात्मा जिसमें प्रविष्ट है। इस प्रकार 'हृदयपू:' में जीवात्मा और ब्रह्म दोनों की स्थिति दर्शाई है। यजुर्वेद में भी कहा है कि "उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि सं विवेश" (३२।११) अर्थात् जीवात्मा का प्रवेश ब्रह्मात्मा में हो जाता है।] चिता पर स्थित और अग्निदग्ध हो जाने पर शेष अस्थियों के सम्बन्ध में मन्त्र में कहा है।] [१. आमाशयस्थानम् (दशपाद्युणादिवृत्ति: ६।४२)। भसत्= जथनं वा (उणादि १।१३०; दयानन्द)। भस् धातु का अर्थ भक्षण भी है। यथा "भसथ:=अश्नीथः (निरुक्त ५।४।२२)। सम्भवतः भक्षणार्थ की दृष्टि से भसत् का अर्थ 'आमाशय' किया है (उणादि आवृत्ति में)।]