अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 9
सूक्त - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
शृ॒तम॒जं शृ॒तया॒ प्रोर्णु॑हि त्व॒चा सर्वै॒रङ्गैः॒ संभृ॑तं वि॒श्वरू॑पम्। स उत्ति॑ष्ठे॒तो अ॑भि॒ नाक॑मुत्त॒मं प॒द्भिश्च॒तुर्भिः॒ प्रति॑ तिष्ठ दि॒क्षु ॥
स्वर सहित पद पाठशृ॒तम् । अ॒जम् । शृ॒तया॑ । प्र । ऊ॒र्णु॒हि॒ । त्व॒चा । सर्वै॑: । अङ्गै॑: । सम्ऽभृ॑तम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । स: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । इ॒त: । अ॒भि । नाक॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् । प॒त्ऽभि: । च॒तु:ऽभि॑: । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । दि॒क्षु॒ ॥१४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
शृतमजं शृतया प्रोर्णुहि त्वचा सर्वैरङ्गैः संभृतं विश्वरूपम्। स उत्तिष्ठेतो अभि नाकमुत्तमं पद्भिश्चतुर्भिः प्रति तिष्ठ दिक्षु ॥
स्वर रहित पद पाठशृतम् । अजम् । शृतया । प्र । ऊर्णुहि । त्वचा । सर्वै: । अङ्गै: । सम्ऽभृतम् । विश्वऽरूपम् । स: । उत् । तिष्ठ । इत: । अभि । नाकम् । उत्ऽतमम् । पत्ऽभि: । चतु:ऽभि: । प्रति । तिष्ठ । दिक्षु ॥१४.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(सर्वैः अङ्गः) सब अंगों से (सम्भृतम्) संयुक्त, (विश्वरूपम्) सम्पूर्ण आकृतिवाले (श्रुतम्) हिंसित अर्थात् अग्निदग्ध (अजम्) अज के शरीर को (शृतया त्वचा) हिंसित अर्थात् अतिदग्ध-त्वक् द्वारा (प्रोर्णुहि) पूर्णतया आच्छादित कर। (सः) वह तू हे जीवात्मन् ! (इतः उत् तिष्ठ) इस शरीर से उठ, और (उत्तमम्) सर्वोत्तम (नाकम्) दु:खासंस्पृष्ट नाकलोक के (अभी) संमुख (चतुर्भिः पद्भिः) धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी चार पादों सहित (दिक्षु) नाना दिशाओं में (प्रतितिष्ठ) दृढ़ स्थित हो जा।
टिप्पणी -
[शरीर तो अग्नि द्वारा शृत हो गया, (शृ हिंसायाम् क्र्यादि) + क्त। शरीर की त्वचा भी शृत हो गई, अग्निदग्ध हो गई (शृतया त्वचा)। अब बची है शरीर की भस्म। यह है त्वक् या त्वचारूप। इस द्वारा अवशिष्ट अग्निदग्ध अस्थियों को आच्छादित करना है (प्रोर्णुहि), प्र+ऊणुञ् आच्छादने (अदादिः)। भस्म द्वारा अस्थियों को आच्छादित कर उन्हें पृथिवी में गाड़ देना है, (यजु० ३५।२१) में निर्दिष्ट विधि द्वारा।][विशेष वक्तव्य --(१) सायणाचार्य ने समग्र सूक्त में चार पैरों वाले बकरे का वर्णन माना है। समग्र सूक्त के वर्णन और अभिप्राय सायणाचार्य के मत के विपरीत हैं। मन्त्र ९ में “पद्भिः चतुर्भिः प्रति तिष्ठ दिक्षु" (मन्त्र ९) में चार पादों का कथन देखकर चार पैरोंवाले बकरे की कल्पना सम्भव है। परन्तु पाद या चार पाद निश्चयरूप में बकरे के चार पैरों के निर्देशक नहीं हैं। अष्टाध्यायी में प्रत्येक अध्याय को चार पादों में विभक्त किया है। माण्डूक्य उपनिषद् में "सर्वं ह्येतद् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, सोऽयमात्मा चतुष्पात्" (कण्डिका २) में ब्रह्म को ' चतुष्पात्' अर्थात् चार पादोंवाला वर्णित किया है। 'चतुष्पात्' वर्णन से क्या ब्रह्म को पशु समझा जाय? (२) सूक्त में 'अज' पद भी पठित है। अज का अर्थ बकरा भी होता है। परन्तु 'अजा' तथा 'अजद्वय' का अभिप्राय अजन्मा प्रकृति तथा जीवात्मा और ब्रह्म भी होता है। यथा— अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमाणोऽनु शेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥ —श्वेताश्वतर उपनिषद् अध्याय ४ (खण्ड ५) । अज है प्रकृति; लोहित है रजोभाग, शुक्ल है सत्त्वभाग, कृष्ण है तमस् भाग। अनुशेते है जीवात्मा, और जहाति द्वारा परमेश्वर कथित हुआ है। भुक्तभोगाम् प्रकृति है जोकि जीवात्मा द्वारा मुक्त हुई है। जीवात्मा अज्ञानवश प्रकृति के भोग के लिए, प्रकृति के साथ सोया रहता है । (३) मन्त्र ३, अध्यात्मपक्ष में पृथिवी है पाद; अन्तरिक्ष है वायु प्रधान छाती अर्थात् फेफड़े और हृदय; दिवम् है मस्तिष्क, स्वः है ब्रह्मरन्ध्र से परे ब्रह्मज्योति, जोकि सुखस्वरूप है। ]