अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
न ता न॑शन्ति॒ न द॑भाति॒ तस्क॑रो॒ नासा॑मामि॒त्रो व्य॒थिरा द॑धर्षति। दे॒वांश्च॒ याभि॒र्यज॑ते॒ ददा॑ति च॒ ज्योगित्ताभिः॑ सचते॒ गोप॑तिः स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठन । ता: । न॒श॒न्ति॒ । न । द॒भा॒ति॒ । तस्क॑र: । न । आ॒सा॒म् । आ॒मि॒त्र: । व्य॒थि: । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ । दे॒वान् । च॒ । याभि॑: । यज॑ते । ददा॑ति । च॒ । ज्योक् । इत् । ताभि॑: । स॒च॒ते॒ । गोऽप॑ति: । स॒ह ॥२१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति। देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सह ॥
स्वर रहित पद पाठन । ता: । नशन्ति । न । दभाति । तस्कर: । न । आसाम् । आमित्र: । व्यथि: । आ । दधर्षति । देवान् । च । याभि: । यजते । ददाति । च । ज्योक् । इत् । ताभि: । सचते । गोऽपति: । सह ॥२१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(ता: न नशन्ति) वे गौएँ नष्ट नहीं होती, (न तस्करः दभाति) न चोर, न डाकू दम्भपूर्वक इनका चौर्य कर पाता है, (आमित्र:=अमित्र:) दुश्मन (व्यथि:) पीड़ादायक होकर (आसाम्) इन गौओं का (न आ दधर्षति) धर्षण नहीं करता। (याभिः) जिन गौओं द्वारा (गोपतिः) गोरक्षक (देवान् यजते) देवयज्ञ करता है। (ददाति च) और इनके दूध का दान करता है, वह (गोपतिः) गौ-रक्षक या गोस्वामी (ताभिः सह) उन गौओं के साथ (ज्योक्) चिरकाल तक (सचते) सम्बद्ध रहता है।
टिप्पणी -
[गोशाला राजकीय है, अत: इन गौओं का पालन-पोषण तथा औषधोपचार ठीक प्रकार से होता है, अत: ये नष्ट नहीं होती, पूर्ण आयु वाली होती हैं। इनकी रक्षा का प्रबन्ध भी यथोचित होता है और चोर या डाकू इनका चौर्य नहीं कर सकते। गोपति इनके दूध, दधि तथा घृत द्वारा देवयज्ञ करता रहता है, नियमपूर्वक अग्निहोत्रादि करता रहता है। तथा प्रजाजनों की सेवा भी गौओं के दूध द्वारा करता रहता है। ऐसा गोपति अर्थात् राज्य द्वारा नियुक्त प्रबन्धक, चिरकाल तक, गोपति रूप में बना रहता है।] [दभाति= लेट् लकार, आट् आगम।]