अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 10
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अजशृङ्ग्योषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
अ॑वका॒दान॑भिशो॒चान॒प्सु ज्यो॑तय माम॒कान्। पि॑शा॒चान्त्सर्वा॑नोषधे॒ प्र मृ॑णीहि॒ सह॑स्व च ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व॒का॒ऽअ॒दान् । अ॒भि॒ऽशो॒चान् । अ॒प्ऽसु । ज्यो॒त॒य॒ । मा॒म॒कान् । पि॒शा॒चान् । सर्वा॑न् । ओ॒ष॒धे॒ । प्र । मृ॒णी॒हि॒ । सह॑स्व । च॒ ॥३७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अवकादानभिशोचानप्सु ज्योतय मामकान्। पिशाचान्त्सर्वानोषधे प्र मृणीहि सहस्व च ॥
स्वर रहित पद पाठअवकाऽअदान् । अभिऽशोचान् । अप्ऽसु । ज्योतय । मामकान् । पिशाचान् । सर्वान् । ओषधे । प्र । मृणीहि । सहस्व । च ॥३७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(मामकान्) मत्सम्बन्धी, (अभिशोचान्) शोक प्राप्त करानेवाले, (अवकादान्) अवकाभक्षकों को (अप्सु) जलों में ही (ज्योतय) [विद्युत् या सूर्य की ज्योति द्वारा) जला दे; (ओषधे) हे ओषधि ! (सर्वान्) सब (पिशाचान्) मांसभक्षकों को (प्र मृणीहि) मार डाल, (च) और (सहस्व) उनका पराभव कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र में दो विकल्प हैं। (१) विद्युत या सूर्य की ज्योति द्वारा, जलस्थ रोग-कीटाणुओं को समाप्त कर देना। (२) औषधि के प्रयोग द्वारा या उसके सुगन्धित धूम द्वारा उन्हें मार देना। रोग-कीटाणु, रोग पैदा कर रोगी के मांस को सुखा देते हैं, उसे कमजोर कर देते हैं, इसलिए वे पिशाच हैं; पिश= पिशित, मांस+अञ्चु, अचु, अचि (याचने, भ्वादि:); मांसयाचक, अत: मांसभक्षक; मांसयाचना भक्षण के लिए ही होती है१।] [१. मन्त्र ८,९ में इन्द्र के तीन अर्थ अभिप्रेत हैं-(१) सम्राद्, (२) अन्तरिक्षस्थ विद्युत्, (३) सूर्य।]