अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अप्सरासमूहः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
यत्र॑ वः प्रे॒ङ्खा हरि॑ता॒ अर्जु॑ना उ॒त यत्रा॑घा॒टाः क॑र्क॒र्यः॑ सं॒वद॑न्ति। तत्परे॑ताप्सरसः॒ प्रति॑बुद्धा अभूतन ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । व॒: । प्र॒ऽई॒ङ्खा: । हरि॑ता: । अर्जु॑ना: । उ॒त । यत्र॑ । आ॒घा॒टा: । क॒र्क॒र्य᳡: । स॒म्ऽवद॑न्ति । तत् । परा॑ । इ॒त॒ । अ॒प्स॒र॒स॒: । प्रति॑ऽबुध्दा: । अ॒भू॒त॒न॒ ॥३७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र वः प्रेङ्खा हरिता अर्जुना उत यत्राघाटाः कर्कर्यः संवदन्ति। तत्परेताप्सरसः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । व: । प्रऽईङ्खा: । हरिता: । अर्जुना: । उत । यत्र । आघाटा: । कर्कर्य: । सम्ऽवदन्ति । तत् । परा । इत । अप्सरस: । प्रतिऽबुध्दा: । अभूतन ॥३७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
[हे अप्सरसः] (यत्र) जिस स्थान में (व:) तुम्हारे (हरिताः, अर्जुनाः उत) हरे और श्वेत वर्णोंवाले (प्रेङ्खा) झूले हैं, (यत्र) जिस स्थान में (जघाटा:) संघट्ट में वर्तमान (कर्कर्यः) कड़कड़ शब्द करनेवाले झींगुर१ (सम् वदन्ति) परस्पर मिलकर संवाद या शोर-गुल करते हैं, (तत्) उस स्थान में (परा इत) हमसे पराङ्मुख होकर तुम चले जाओ (अप्सरसः) हे अप् अर्थात् जल में सरण करनेवाले मादा-कीटाणुओ! (प्रतिबुद्धाः अभूतन) तुम जाने-पहिचाने हो गये हो।
टिप्पणी -
[मन्त्र में वन या अरण्यानी अर्थात महारण्य-स्थल का वर्णन है। महावृक्षों की शाखाओं के प्रलम्बों द्वारा तथा लताओं द्वारा उत्पन्न झूले। आघाटा:= 'घट संघाते' (चुरादिः), अथवा 'घटि भाषार्थः' (चुरादिः), मानो परस्पर भाषण करते हुए झींगुर, "संवदन्ति"।] [१. संभवतः ये झींगुर ऋग्वैदिक 'चिच्चिक' हैं। यथा 'वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः। आघाटिभिरिव धावयन्नरण्यानिर्महीयते" (ऋ० १०।१४६।२; अरण्यानी सूक्त) वृषारव है वर्षा करनेवाले मेघ का "आ रव" अर्थात् चारों दिशाओं में व्यापी गर्जन। इस गर्जन को उपलक्ष्य करके मानो जल-याचन के लिए 'चिच्चिक' चि-चि आवाजें करता है। अवति= अव याचने (भ्वादिः)। चि-चि आवाजें सम्भवतः झींगुरों का संवदन है संवाद करना है।]