अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 7
सूक्त - बादरायणिः
देवता - गन्धर्वाप्सरसः
छन्दः - परोष्णिक्
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
आ॒नृत्य॑तः शिख॒ण्डिनो॑ गन्ध॒र्वस्या॑प्सराप॒तेः। भि॒नद्मि॑ मु॒ष्कावपि॑ यामि॒ शेपः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽनृत्य॑त: । शि॒ख॒ण्डिन॑: । ग॒न्ध॒र्वस्य॑ । अ॒प्स॒रा॒ऽप॒ते: । भि॒नद्मि॑ । मु॒ष्कौ । अपि॑ । या॒मि॒ । शेप॑: ॥३७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आनृत्यतः शिखण्डिनो गन्धर्वस्याप्सरापतेः। भिनद्मि मुष्कावपि यामि शेपः ॥
स्वर रहित पद पाठआऽनृत्यत: । शिखण्डिन: । गन्धर्वस्य । अप्सराऽपते: । भिनद्मि । मुष्कौ । अपि । यामि । शेप: ॥३७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(आनृत्यत:) घूम-घूमकर नाचते हुए (शिखण्डिन:) मयूरों के सदृश नाचते हुए, (अप्सरापते:१) जल में सरण करनेवाले मादा रोग कीटाणु के पति, (गन्धर्वस्य) गन्ध द्वारा हिंसनीय नर-कीटाणु के (मुष्कौ) अण्डकोषों में छिपे दो अण्डों को (भिनद्मि) मैं तोड़ देता हूँ, और (शेपः) प्रजननेन्द्रिय पर (अपि२ यामि) आक्रमण करता हूँ [अभिप्राय है "काट देता हूँ"।]
टिप्पणी -
[सूक्ष्म प्रदर्शक अर्थात् माइक्रोस्कोप द्वारा देखने पर रोग-कीटाणु [germs] अतिशय हिलते-डुलते दीखते हैं, जिनकी इस क्रिया को नाचना कहा है। मयूर नाचता है, मोरनी को अपनी ओर कामार्थ आकर्षित करने के लिए। गन्धर्व अर्थात् गन्ध द्वारा हिंसनीय नर रोग-कीटाणु के नाच को भी, मादा रोग-कीटाणु का आकर्षक वर्णित किया है। नर-रोग कीटाणु, मादा-रोग कीटाणु में जब निज प्रजननेन्द्रिय द्वारा वीर्य सदृश शारीरिक तरलांश का आधार करता है तभी रोग-कीटाणुओं की वंशपरम्परा चालू होती है। इस परम्परा का उच्छेद तभी सम्भव है जवकि नर रोग-कीटाणु के अण्डों३ का भेदन कर दिया जाए, और उसकी प्रजननेन्द्रिय को काट दिया जाए। इसके लिए निष्णात वैज्ञानिक डाक्टर अपेक्षित हैं। भेदन और काटने के लिए अस्त्र-शस्त्र का वर्णन मन्त्र ८,९ में देखें। अजशृङ्गी ओषधि (मन्त्र २) द्वारा रोग-कीटाणुओं को मार देने का निर्देश भी किया है। इससे भेदन और काटने की आवश्यकता नहीं होती। औषधि के प्रयोक्ताओं का वर्णन (मन्त्र २) में है।] [१. अप्सरा, अप्सरा: दोनों पर्यायवाची हैं। अप्सरा= अप+ सर+ टाप्। अप्सराः= अप+स् (गतौ) असुन्। २. अपि यामि= अभियामि, अभियान है आक्रमण करना। ३. मुष्कौ, शेप:= ये दो अङ्ग कल्पित किये हैं वीर्याधान की दृष्टि से, अथवा ये दो अङ्ग सम्भवत: सूक्ष्मरूप में इनमें विद्यमान हों। यथा मन्त्र ११ के अनुसार गन्धर्व पुरुष है जोकि श्वा और कपि के सदृश योगी होकर, कुमार का रूप धारण कर, स्त्रियों का संभोग करता है, जिसे कि विनाश का दण्ड दिया है, राजव्यवस्थानुसार।]