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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बादरायणिः देवता - गन्धर्वाप्सरसः छन्दः - परोष्णिक् सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
    75

    आ॒नृत्य॑तः शिख॒ण्डिनो॑ गन्ध॒र्वस्या॑प्सराप॒तेः। भि॒नद्मि॑ मु॒ष्कावपि॑ यामि॒ शेपः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽनृत्य॑त: । शि॒ख॒ण्डिन॑: । ग॒न्ध॒र्वस्य॑ । अ॒प्स॒रा॒ऽप॒ते: । भि॒नद्मि॑ । मु॒ष्कौ । अपि॑ । या॒मि॒ । शेप॑: ॥३७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आनृत्यतः शिखण्डिनो गन्धर्वस्याप्सरापतेः। भिनद्मि मुष्कावपि यामि शेपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽनृत्यत: । शिखण्डिन: । गन्धर्वस्य । अप्सराऽपते: । भिनद्मि । मुष्कौ । अपि । यामि । शेप: ॥३७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गन्धर्व और अप्सराओं के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (आनृत्यतः) सब ओर चेष्टा करनेवाले, (शिखण्डिनः) महा उद्योगी (गन्धर्वस्य) वेदवाणी और पृथिवी आदि को धारण करनेवाले (अप्सरापतेः) आकाश, जल, प्राण और प्रजाओं में व्यापक शक्तियों के रक्षक परमेश्वर का (शेपः) सामर्थ्य (यामि) मैं माँगता हूँ, [जिससे] (मुष्कौ) [कामक्रोधरूप] दो चोरों को (अपि) अवश्य (भिनद्भि) छिन्न-भिन्न करूँ ॥७॥

    भावार्थ

    सर्वव्यापक सर्वनियामक परमेश्वर के विचार से मनुष्य जितेन्द्रिय होकर कुकाम कुक्रोध आदि दोषों को मिटावें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(आनृत्यतः) नृती गात्रविक्षेपे-शतृ। सम्यक् चेष्टायमानस्य (शिखण्डिनः) म० ४। उद्योगिनः (गन्धर्वस्य) म० २। पृथिव्यादिधारकस्य (अप्सरापतेः) अ० २।२।३। अप्सराणाम् आकाशजलप्राणप्रजासु सरणशीलानां शक्तीनां पालकस्य परमेश्वरस्य (भिनद्मि) विदारयामि (मुष्कौ) सृवृमृषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति मुष स्तेये-कक्। कामक्रोधरूपौ तस्करौ (अपि) एव (यामि) याच्ञाकर्मा-निघ० ३।१९। अहं याचे (शेपः) पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। इति शीङ् शयने-प। शेपो वैतस इति पुंस्प्रजननस्य। शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः-निरु० ३।२१। सामर्थ्यम् ॥

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    विषय

    कृमि-प्रजनन-निरोध

    पदार्थ

    १. (आनृत्यत:) = चारों ओर नृत्य-सा करते हुए (शिखण्डिन:) = चूड़ा-[चोटी]-वाले (गन्धर्वस्य) = गायन-सा करनेवाले (अप्सरापतेः) = जलसञ्चारी कृमियों के मुखिया के (मुष्को) = अण्डकोशों को (भिनधि) = तोड़ देता हूँ और (शेपः अपियामि) = उसके प्रजननांग का नाश करता हूँ।

    भावार्थ

    कृमियों के प्रजनन को समाप्त करके हम इन्हें बीमारी फैलाने से रोकते हैं।

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    भाषार्थ

    (आनृत्यत:) घूम-घूमकर नाचते हुए (शिखण्डिन:) मयूरों के सदृश नाचते हुए, (अप्सरापते:१) जल में सरण करनेवाले मादा रोग कीटाणु के पति, (गन्धर्वस्य) गन्ध द्वारा हिंसनीय नर-कीटाणु के (मुष्कौ) अण्डकोषों में छिपे दो अण्डों को (भिनद्मि) मैं तोड़ देता हूँ, और (शेपः) प्रजननेन्द्रिय पर (अपि२ यामि) आक्रमण करता हूँ [अभिप्राय है "काट देता हूँ"।]

    टिप्पणी

    [सूक्ष्म प्रदर्शक अर्थात् माइक्रोस्कोप द्वारा देखने पर रोग-कीटाणु [germs] अतिशय हिलते-डुलते दीखते हैं, जिनकी इस क्रिया को नाचना कहा है। मयूर नाचता है, मोरनी को अपनी ओर कामार्थ आकर्षित करने के लिए। गन्धर्व अर्थात् गन्ध द्वारा हिंसनीय नर रोग-कीटाणु के नाच को भी, मादा रोग-कीटाणु का आकर्षक वर्णित किया है। नर-रोग कीटाणु, मादा-रोग कीटाणु में जब निज प्रजननेन्द्रिय द्वारा वीर्य सदृश शारीरिक तरलांश का आधार करता है तभी रोग-कीटाणुओं की वंशपरम्परा चालू होती है। इस परम्परा का उच्छेद तभी सम्भव है जवकि नर रोग-कीटाणु के अण्डों३ का भेदन कर दिया जाए, और उसकी प्रजननेन्द्रिय को काट दिया जाए। इसके लिए निष्णात वैज्ञानिक डाक्टर अपेक्षित हैं। भेदन और काटने के लिए अस्त्र-शस्त्र का वर्णन मन्त्र ८,९ में देखें। अजशृङ्गी ओषधि (मन्त्र २) द्वारा रोग-कीटाणुओं को मार देने का निर्देश भी किया है। इससे भेदन और काटने की आवश्यकता नहीं होती। औषधि के प्रयोक्ताओं का वर्णन (मन्त्र २) में है।] [१. अप्सरा, अप्सरा: दोनों पर्यायवाची हैं। अप्सरा= अप+ सर+ टाप्। अप्सराः= अप+स् (गतौ) असुन्। २. अपि यामि= अभियामि, अभियान है आक्रमण करना। ३. मुष्कौ, शेप:= ये दो अङ्ग कल्पित किये हैं वीर्याधान की दृष्टि से, अथवा ये दो अङ्ग सम्भवत: सूक्ष्मरूप में इनमें विद्यमान हों। यथा मन्त्र ११ के अनुसार गन्धर्व पुरुष है जोकि श्वा और कपि के सदृश योगी होकर, कुमार का रूप धारण कर, स्त्रियों का संभोग करता है, जिसे कि विनाश का दण्ड दिया है, राजव्यवस्थानुसार।]

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    विषय

    हानिकारक रोग-जन्तुओं के नाश का उपदेश।

    भावार्थ

    (आ-नृत्यतः) चारों ओर नाचते कूदते (शिखण्डिनः) चोटी वाले (गन्धर्वस्य) गन्ध के पीछे जाने वाले, रोग फैलाने वाले (अप्सरापतेः) मादा रोगकीट के पति अथवा फैलने वाले रोगों को अपने भीतर पालने वाले जन्तु के (मुष्कौ भिनद्मि) वीर्योत्पादक अण्डकोशों को तोड़ डालूं और (शेपः अपि यामि) प्रजजन अंग का नाश कर दूं। इससे रोगजनक कीट अपनी सन्तति न बढ़ा सकेंगे, रोग फैलना बन्द हो जायगा। इनको वीर्यहीन, निस्सन्तान करने के लिये ऐसी ओषधियों का प्रयोग करना चाहिये कि इनके सन्तान उत्पादक अंग ओषधि के घातक प्रभाव से फट जाय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बादरायणिर्ऋषिः। अजशृङ्गी अप्सरो देवता। १, २, ४, ६, ८-१० अनुष्टुभौ। त्र्यवसाना षट्पदी त्रिष्टुप्। ५ प्रस्तारपंक्तिः। ७ परोष्णिक्। ११ षट्पदा जगती। १२ निचत्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destroying Insects, Germs and Bacteria

    Meaning

    I also destroy the eggs of the females and breeding power of the males of the carriers of air borne and water borne diseases, rising and spreading all round.

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    Translation

    Of the wildly dancing and crested soil-germs, the lord of water-germs, I crush the testicles and bind the male organ.

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    Translation

    I (strengthened with the vigor of this herb) crush the potential powers and take vigor of the dancing cloud which has high peaks and is the lord of the apsaras, the lightning.

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    Translation

    I break the testicles and devitalize the penis of male germs, that follow smell, and dance like the dancing peacocks, wearing the tuft of hair.

    Footnote

    I: A skilled physician. A physician should take away all manhood and vitality from the male germs through medicine, so that they may be rendered unfit for procreation, and thus prevent the spread of disease through their offspring’s.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(आनृत्यतः) नृती गात्रविक्षेपे-शतृ। सम्यक् चेष्टायमानस्य (शिखण्डिनः) म० ४। उद्योगिनः (गन्धर्वस्य) म० २। पृथिव्यादिधारकस्य (अप्सरापतेः) अ० २।२।३। अप्सराणाम् आकाशजलप्राणप्रजासु सरणशीलानां शक्तीनां पालकस्य परमेश्वरस्य (भिनद्मि) विदारयामि (मुष्कौ) सृवृमृषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति मुष स्तेये-कक्। कामक्रोधरूपौ तस्करौ (अपि) एव (यामि) याच्ञाकर्मा-निघ० ३।१९। अहं याचे (शेपः) पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। इति शीङ् शयने-प। शेपो वैतस इति पुंस्प्रजननस्य। शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः-निरु० ३।२१। सामर्थ्यम् ॥

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