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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बादरायणिः देवता - अजशृङ्ग्योषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
    67

    त्वया॑ व॒यम॑प्स॒रसो॑ गन्ध॒र्वांश्चा॑तयामहे। अज॑शृ॒ङ्ग्यज॒ रक्षः॒ सर्वा॑न् ग॒न्धेन॑ नाशय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वया॑ । व॒यम् । अ॒प्स॒रस॑: । ग॒न्ध॒र्वान् । चा॒त॒या॒म॒हे॒ । अज॑ऽशृ‍ङ्गि । अज॑ । रक्ष॑: । सर्वा॑न् । ग॒न्धेन॑ । ना॒श॒य॒ ॥३७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वया वयमप्सरसो गन्धर्वांश्चातयामहे। अजशृङ्ग्यज रक्षः सर्वान् गन्धेन नाशय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वया । वयम् । अप्सरस: । गन्धर्वान् । चातयामहे । अजऽशृ‍ङ्गि । अज । रक्ष: । सर्वान् । गन्धेन । नाशय ॥३७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गन्धर्व और अप्सराओं के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अजशृङ्गि) हे जीवात्मा के दुःखनाशक शक्ति परमेश्वर ! (त्वया) तेरे साथ (वयम्) हम लोग (अप्सरसः) आकाश, जल, प्राण और प्रजाओं में व्यापक शक्तियों को और (गन्धर्वान्) विद्या वा पृथिवी धारण करनेवाले गुणों को (चातयामहे) माँगते हैं। (गन्धेन) अपनी व्याप्ति से (सर्वान्) सब (रक्षः) राक्षसों को (अज) हटा दे और (नाशय) नाश करदे ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमेश्वर पर विश्वास करके पुरुषार्थ करते हैं, वे ही संसार को सुख देते हैं। [अजशृङ्गी एक औषध भी है] ॥२॥ इन मन्त्रों के साथ अ० का० २ सू० २ का मिलान् करो ॥

    टिप्पणी

    २−(त्वया) (वयम्) (अप्सरसः) अ० २।२।३। सरतेरप्पूर्वादसिः। उ० ४।२३७। इति अप्+सृ गतौ-असि। अप्सु आकाशे, जले प्राणेषु प्रजासु च सरणशीलाः शक्तीः (गन्धर्वान्) अ० २।१।२। विद्याधारकान् पृथिवीधारकान् वा गुणान् (चातयामहे) चते याचने, भ्वा०। अत्र चुरादिः। याचामहे (अजशृङ्गि) अजो जीवात्मा-अ० ४।१४।१। शृङ्गम्-अ० २।३२।६। शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित् नुट् च। ङीप्। अजस्य जीवात्मनः शृङ्गं दुःखनाशनं यस्याः सा शक्तिः परमेश्वरः तत्सम्बुद्धौ अजशृङ्गीति ओषधिविशेषोऽप्यस्ति (अज) प्रक्षिप (रक्षः) रक्ष पालने-अपादाने क्विप्। राक्षसान् (सर्वान्) (गन्धेन) गन्ध गतिहिंसायाचनेषु-अच्। स्वव्याप्त्या (नाशय) ॥

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    विषय

    अप्सरस् गन्धवों का चातन

    पदार्थ

    १. हे (अजशृंगि) = 'विषाणी' नामवाली ओषधे! (त्वया) = तेरे द्वारा (वयम्) = हम (अप्सरस:) = जल में गति करनेवाले-फैलनेवाले (गन्धर्वान्) = गुञ्जनरूप गायन करनेवाले कृमियों को (चातयामहे) = विनष्ट करते हैं। २. हे (अजशृंगि)! तू इन रोगकृमियों को (अज) - परे फेंक-दूर कर, (सर्वान् रक्षः) = सब रोगकृमियों को गन्धेन-अपनी गन्ध से नाशय-नष्ट कर दे-दूर भागा दे।

    भावार्थ

    अजशृंगी ओषधि के गन्ध से जल-प्रदेश-विहारी मच्छर आदि रोगकृमि नष्ट हो जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (त्वया) तुझ द्वारा (वयम्) हम (अप्सरसः) जल में सरण करनेवाले मादा रोग-कीटाणुओं का, तथा (गन्धर्वान्) गन्ध द्वारा हिंसनीय नर-रोग कीटाणुओं का (चातयामहे) नाश करते हैं; (अजभृङ्गि) हे अजशृङ्गी ओषधि! तू (रक्ष) राक्षसी-रोगकीटाणु को (अज) प्रक्षिप्त कर, इस स्थान से प्रच्युत कर, (सर्वान्) और सब रोग कीटाणुओं को (गन्धेन) गन्ध से (नाशय) नष्ट कर।

    टिप्पणी

    [अप्सरस:= अप्सु सारिण्यः; मादा रोग-कीटाणु। जलों में सरण करनेवाले मलेरिया तथा हैजे के मादा रोग कीटाणु। गन्धर्वान्= गन्ध+अर्वा (अर्व हिंसायाम्, भ्वादिः) नर रोग-कीटाणु। गन्धेन नाशय=अजभृङ्गो को हवन द्वारा जलाकर उसके गन्ध द्वारा नाश करना। सर्वान्= अथवा नर-मादा दोनों प्रकार के रोग कीटाणुओं को नष्ट करना।]

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    विषय

    हानिकारक रोग-जन्तुओं के नाश का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अज शृङ्गी) अज शृङ्गी अर्थात् काकड़ासींगी नामक औषधे ! (त्वया) तुझ द्वारा (वयम्) हम (अप्सरसः) जल में फैलने वाले रोगों और (गन्धर्वान्) वायु में फैलने वाले रोगों को भी (चातयामः) नष्ट करते हैं। तू अपने रोगनाशक स्वभाव से (सर्वान् रक्षः) सब रोगों को (अज) दूर कर और (गन्धेन विनाशय) गन्ध से उनका नाश कर दे।

    टिप्पणी

    अजशृङ्गी के गुण—वातहर, कास, श्वास, राजयक्ष्मा, वमन, तृष्णा, अरुचि, अतिसार, चक्षुर्दोष, हृद्रोग, अर्श, शोष, अतिकुष्ठ आदि का नाश करती है। इसके जलाने से तीक्ष्ण गन्ध होता है। मच्छर आदि भाग जाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बादरायणिर्ऋषिः। अजशृङ्गी अप्सरो देवता। १, २, ४, ६, ८-१० अनुष्टुभौ। त्र्यवसाना षट्पदी त्रिष्टुप्। ५ प्रस्तारपंक्तिः। ७ परोष्णिक्। ११ षट्पदा जगती। १२ निचत्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destroying Insects, Germs and Bacteria

    Meaning

    By you we drive off water borne and air borne diseases. O Ajashrngi, remove disease bearing germs, destroy them all by smell.

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    Translation

    With you, we destroy the germs living in water (apsaras); as well as the germs living in soil (gandharva). O ajasrngi (the goat-horned herb; odina pinnata), drive away the germs of disease, and with your smell make all of them to vanish.

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    Translation

    With this herb we drive away the effect of electricity and the sun-strokes. Let the herb Ajashringi throw away the disease and cause to vanish away all disease, trouble with its smell.

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    Translation

    O Ajashringi, through thee, we scare and drive away the diseases that spread in water and air. Chase the germs, cause them all to vanish with thy smell.

    Footnote

    Ajashringi is the name of a medicinal plant, known as kakrasingi. In Latin the plant is called Odina Pinnata, It cures cough, thirst, dysentery, consumption and vomiting. Its pungent smell, when burnt drives away mosquitoes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(त्वया) (वयम्) (अप्सरसः) अ० २।२।३। सरतेरप्पूर्वादसिः। उ० ४।२३७। इति अप्+सृ गतौ-असि। अप्सु आकाशे, जले प्राणेषु प्रजासु च सरणशीलाः शक्तीः (गन्धर्वान्) अ० २।१।२। विद्याधारकान् पृथिवीधारकान् वा गुणान् (चातयामहे) चते याचने, भ्वा०। अत्र चुरादिः। याचामहे (अजशृङ्गि) अजो जीवात्मा-अ० ४।१४।१। शृङ्गम्-अ० २।३२।६। शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित् नुट् च। ङीप्। अजस्य जीवात्मनः शृङ्गं दुःखनाशनं यस्याः सा शक्तिः परमेश्वरः तत्सम्बुद्धौ अजशृङ्गीति ओषधिविशेषोऽप्यस्ति (अज) प्रक्षिप (रक्षः) रक्ष पालने-अपादाने क्विप्। राक्षसान् (सर्वान्) (गन्धेन) गन्ध गतिहिंसायाचनेषु-अच्। स्वव्याप्त्या (नाशय) ॥

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