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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 10
    ऋषिः - बादरायणिः देवता - अजशृङ्ग्योषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
    92

    अ॑वका॒दान॑भिशो॒चान॒प्सु ज्यो॑तय माम॒कान्। पि॑शा॒चान्त्सर्वा॑नोषधे॒ प्र मृ॑णीहि॒ सह॑स्व च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व॒का॒ऽअ॒दान् । अ॒भि॒ऽशो॒चान् । अ॒प्ऽसु । ज्यो॒त॒य॒ । मा॒म॒कान् । पि॒शा॒चान् । सर्वा॑न् । ओ॒ष॒धे॒ । प्र । मृ॒णी॒हि॒ । सह॑स्व । च॒ ॥३७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवकादानभिशोचानप्सु ज्योतय मामकान्। पिशाचान्त्सर्वानोषधे प्र मृणीहि सहस्व च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवकाऽअदान् । अभिऽशोचान् । अप्ऽसु । ज्योतय । मामकान् । पिशाचान् । सर्वान् । ओषधे । प्र । मृणीहि । सहस्व । च ॥३७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गन्धर्व और अप्सराओं के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अवकादान्) हिंसाओं के नाश करनेवाले, (अभिशोचान्) सब ओर प्रकाशमान (मामकान्) मेरे पुरुषों को (अप्सु) व्याप्यमान प्रजाओं के बीच (ज्योतय) ज्योतिवाला कर। (ओषधे) हे औषधसमान तापनाशक परमेश्वर (सर्वान्) सब (पिशाचान्) मांसभक्षक रोग वा जीवों को (प्र मृणीहि) मार डाल (च) और (सहस्व) हरा दे ॥१०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की प्रार्थनापूर्वक धर्मात्मा पुरुष दुष्ट स्वभावों, रोग और दुष्ट जीवों का नाश करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(अवकादान्) म० ८। हिंसानां भक्षकान् नाशकान् (अभिशोचान्) अभितः शोचमानान् दीप्यमानान् (अप्सु) व्याप्यमानासु प्रजासु (ज्योतय) ज्योततेर्ज्वलतिकर्मा-निघ० १।१६। णिचि रूपम्। द्योतय प्रकाशय (मामकान्) मत्सम्बन्धिनः पुरुषान् (पिशाचान्) मांसभक्षकान् रोगादीन् (सर्वान्) (ओषधे) हे ओषधिवत् तापनाशक परमेश्वर (प्र) (मृणीहि) मृण। नाशय (सहस्व) अभिभव (च) समुच्चये ॥

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    विषय

    'अवकाद, अभिशोच' पिशाच

    पदार्थ

    १. हे (ओषधे) = अजशृङ्ग! तू (अवकादान्) = जल पर के शैवाल को भी खा जानेवाले अभि (शोचान्) = दाह व सन्ताप पैदा करनेवाले (अप्सु) = शरीरस्थ जलाशों में रहनेवाले (मामकान) = मेरे (पिशाचान्) = मांस को खा जानेवाले कृमियों को (ज्योतय) = जला दे। २. (सर्वान्) = मांस खा जानेवाले इन सब कृमियों को (प्रमृणीहि) = तू हिसित कर (च) = और (सहस्व) = इन रक्तशोषक कृमियों का मर्षण कर दे-इन्हें कुचल डाल।

    भावार्थ

    जो कृमि रक्त का शोषण करते हैं और मांस को भी खा जाते हैं, उन्हें अजशृङ्गी नष्ट कर डाले।

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    भाषार्थ

    (मामकान्) मत्सम्बन्धी, (अभिशोचान्) शोक प्राप्त करानेवाले, (अवकादान्) अवकाभक्षकों को (अप्सु) जलों में ही (ज्योतय) [विद्युत् या सूर्य की ज्योति द्वारा) जला दे; (ओषधे) हे ओषधि ! (सर्वान्) सब (पिशाचान्) मांसभक्षकों को (प्र मृणीहि) मार डाल, (च) और (सहस्व) उनका पराभव कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में दो विकल्प हैं। (१) विद्युत या सूर्य की ज्योति द्वारा, जलस्थ रोग-कीटाणुओं को समाप्त कर देना। (२) औषधि के प्रयोग द्वारा या उसके सुगन्धित धूम द्वारा उन्हें मार देना। रोग-कीटाणु, रोग पैदा कर रोगी के मांस को सुखा देते हैं, उसे कमजोर कर देते हैं, इसलिए वे पिशाच हैं; पिश= पिशित, मांस+अञ्चु, अचु, अचि (याचने, भ्वादि:); मांसयाचक, अत: मांसभक्षक; मांसयाचना भक्षण के लिए ही होती है१।] [१. मन्त्र ८,९ में इन्द्र के तीन अर्थ अभिप्रेत हैं-(१) सम्राद्, (२) अन्तरिक्षस्थ विद्युत्, (३) सूर्य।]

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    विषय

    हानिकारक रोग-जन्तुओं के नाश का उपदेश।

    भावार्थ

    शरीर-गत रोग-जन्तुओं पर ओषधि का प्रयोग बतलाते हैं। हे ओषधे ! (अवकादान्) काई [ फंगस ] पर आहार करने वाले, (अभिशोचान्) सब तरफ़ देह में दाह उत्पन्न करने वाले, (मामकान्) मेरे शरीर में बैठे रोग-कीटों को (अप्सु) शरीर-गत जलों, रुधिर में ही (ज्योतय) विनष्ट कर। अथवा हे ओषधे ! (ज्योतय-मामकान्) जल में चमचमाने वाले (सर्वान् पिशाचान्) सब पिशाचों, शरीर के रक्त मांस शोषण करने वाले रोग-जन्तुओं को (प्र मृणीहि) विनाश कर (सहस्व च) और उनको दबा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बादरायणिर्ऋषिः। अजशृङ्गी अप्सरो देवता। १, २, ४, ६, ८-१० अनुष्टुभौ। त्र्यवसाना षट्पदी त्रिष्टुप्। ५ प्रस्तारपंक्तिः। ७ परोष्णिक्। ११ षट्पदा जगती। १२ निचत्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destroying Insects, Germs and Bacteria

    Meaning

    O herb, bum up and eliminate all consumptive and cancerous contaminations in my blood, destroy all blood suckers and with your power crush them to the root.

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    Translation

    O herb, may you illumine all of my blood-suckers, that feed on avaka (Blyxa Octandra) and shine in the waters. May you overwhelm and destroy them.

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    Translation

    Let this herb make visible and manifest those germs of my body which eat dirt and shine with splendor. Let this herb crush all the diseases germs and destroy them.

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    Translation

    O medicine, crush and subdue the germs that reside in the waters in my body, are highly troublesome, and are blood-suckers.

    Footnote

    Medicine: Ajsringi, Pt. Khem Karan Das Trivediand Pt. Jaidev Vidyalankar have given a spiritual interpretation or this hymn. For a detailed account consult their commentaries on Hymn XXXVII. According to this interpretation Kashyap means eye, Kanva ear, Agastya nose. Atharva means organs of senses. Ajsringi means soul-force. Apsarsas mean organs Of action and cognition. Gandharvas also mean organs of senses. Gulgulu means juice रसना. Pila means eye. Natdi means ear. Ankshyagandhi means nose. Pramandni means skin. Testicles mean passion and ignorance. Rajas, Tamas feelings, shapa means the feeling of virtue and goodness, satvik feeling. Havirad means, a slave of passions. Pishach means one given to lust.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(अवकादान्) म० ८। हिंसानां भक्षकान् नाशकान् (अभिशोचान्) अभितः शोचमानान् दीप्यमानान् (अप्सु) व्याप्यमानासु प्रजासु (ज्योतय) ज्योततेर्ज्वलतिकर्मा-निघ० १।१६। णिचि रूपम्। द्योतय प्रकाशय (मामकान्) मत्सम्बन्धिनः पुरुषान् (पिशाचान्) मांसभक्षकान् रोगादीन् (सर्वान्) (ओषधे) हे ओषधिवत् तापनाशक परमेश्वर (प्र) (मृणीहि) मृण। नाशय (सहस्व) अभिभव (च) समुच्चये ॥

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