अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 11
ऋषिः - बादरायणिः
देवता - अजशृङ्ग्योषधिः
छन्दः - षट्पदा जगती
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
52
श्वेवैकः॑ क॒पिरि॒वैकः॑ कुमा॒रः स॑र्वकेश॒कः। प्रि॒यो दृ॒श इ॑व भू॒त्वा ग॑न्ध॒र्वः स॑चते॒ स्त्रिय॑स्तमि॒तो ना॑शयामसि॒ ब्रह्म॑णा वी॒र्या॑वता ॥
स्वर सहित पद पाठश्वाऽइ॑व । एक॑: । क॒पि:ऽइ॑व । एक॑: । कु॒मा॒र: । स॒र्व॒ऽके॒श॒क: । प्रि॒य: । दृ॒शेऽइ॑व । भू॒त्वा ।ग॒न्ध॒र्व: । स॒च॒ते॒ । स्त्रिय॑: । तम् । इ॒त: । ना॒श॒या॒म॒सि॒ । ब्रह्म॑णा । वी॒र्य᳡वता ॥३७.११॥
स्वर रहित मन्त्र
श्वेवैकः कपिरिवैकः कुमारः सर्वकेशकः। प्रियो दृश इव भूत्वा गन्धर्वः सचते स्त्रियस्तमितो नाशयामसि ब्रह्मणा वीर्यावता ॥
स्वर रहित पद पाठश्वाऽइव । एक: । कपि:ऽइव । एक: । कुमार: । सर्वऽकेशक: । प्रिय: । दृशेऽइव । भूत्वा ।गन्धर्व: । सचते । स्त्रिय: । तम् । इत: । नाशयामसि । ब्रह्मणा । वीर्यवता ॥३७.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गन्धर्व और अप्सराओं के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(एकः एव) एक ही परमेश्वर (श्वा) गतिशील वा वृद्धिशील है, (एकः इव) एक ही (कपिः) कंपानेवाला वा क्रोधशील, (कुमारः) कामनायोग्य, (सर्वकेशकः) सर्वप्रकाशक है। (प्रियः इव) प्रिय ही परमेश्वर (गन्धर्वः) वेदवाणी वा पृथिवी का धारण करनेवाला (भूत्वा) होकर (दृशे) सबके देखने के लिये (स्त्रियः) आपस में संगति रखनेवाले समूहों में (सचते) मिला रहता है। (वीर्यावता) उस सामर्थ्यवाले (ब्रह्मणा) परब्रह्म के साथ (तम्) चोट करनेवालो चोर को (इतः) यहाँ से (नाशयामसि) हम नाश करते हैं ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा को सर्वद्रष्टा आदि गुणविशिष्ट जानकर मनुष्य ज्ञानपूर्वक अपने दुष्कर्मों का नाश करें ॥११॥
टिप्पणी
११−(श्वा) श्वन्नुक्षन्०। उ० १।१५९। इति टुओश्वि गतिवृद्ध्योः कनिन्। श्वाऽऽशुयायी शवतेर्वास्याद् गतिकर्मणः श्वसितेर्वा-निरु० ३।१८। गतिशीलः। वृद्धिशीलः (इव) अवधारणे (एकः) अद्वितीयः (कपिः) कुण्ठिकम्योर्नलोपश्च। ४।१४४। इति कपि चलने-ह। कम्पते क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। कम्पयिता। क्रोधशीलः (कुमारः) कमेः किदुच्चोपधायाः। उ० ३।१३८। इति कमु कान्तौ−आरन्। कमनीयः (सर्वकेशकः) काशृ दीप्तौ-वुन्। अकारस्य एकारः। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद्वा, निरु० १२।२५। सर्वप्रकाशकः (प्रियः) प्रीतिकरः (दृशे) अ० १।६।३। द्रष्टुम्। सर्वदर्शनाय (भूत्वा) (गन्धर्वः) पृथिव्यादिधारकः परमेश्वरः (स्त्रियः) अ० १।८।१। स्त्यै संघाते ड्रट्, ङीप्। सर्वाः संहतीः। समूहान् (तम्) तन आघाते-ड। तानयतीति तः। आहन्तारं चोरम् (इतः) अस्मात् स्थानात् (नाशयामसि) नाशयामः (ब्रह्मणा) परमेश्वरेण सह (वीर्यावता) अतिशयसामर्थ्ययुक्तेन ॥
विषय
ब्राही ओषधि
पदार्थ
१. यह (गन्धर्वः) = गायन करनेवाला (एक:) = एक कृमि (श्वा इव) = कुत्ते के समान है-इसका स्वर भौंकता-सा प्रतीत होता है। (एकः) = एक कृमि (कपिः इव) = बन्दर के समान अत्यन्त चञ्चल है। यह (कुमार:) = बुरी भाँति मारनेवाला है। (सर्वकेशक:) = सब ओर बालोंवाला कृमि (दश: प्रियः इव भूत्वा) = आँखों के लिए प्रिय-सा होता हुआ दिखने में अच्छा लगता हुआ (स्त्रियः सचते) = स्त्री शरीरों में प्रवेश करता है। २. (तम्) = उस कृमि को (इतः) = यहाँ से-शरीर से (बीयांवता) = बड़ी शक्तिवाली ब्रह्मणा ब्राह्मी ओषधि से (नाशयामसि) = दूर भगाते हैं।
भावार्थ
स्त्री-शरीरों में प्रविष्ट होकर योनि-दोषों को उत्पन्न करनेवाले कृमियों को ब्राह्मी के प्रयोग से दूर करते हैं।
भाषार्थ
(श्वा इव) कुत्ते के सदृश (एक:) एक, (कपि: इव) कपि के सदृश (एकः) एक, (कुमारः) कुत्सित कामवाला युवा-कुमार, (सर्वकेशक:) जो सबके लिए क्लेशवाला है, क्लेशप्रद है, वह (दृशः) दृष्टि को (प्रिय इव) प्रिय लगनेवाला (भूत्वा) होकर, (गन्धर्व:) और गीतियों को धारण कर, (स्त्रियः) नाना स्त्रियों के साथ (सचते) सम्बन्ध करता है, (तम्) उसको (वीर्यावता ब्रह्मणा) शक्ति प्रदाता परमेश्वर की सहायता द्वारा (इत: नाशयामसि) इस पृथिवी से हम परस्पर मिलकर नष्ट करते हैं।
टिप्पणी
[यद्यपि प्रकरण में गन्धर्व का अर्थ "गन्ध द्वारा हिंसा नर-कीटाणु है", तो भी नर-कीटाणु सदृश युवा-कुमार का भी प्रसङ्गवश वर्णन हुआ है। यह 'कुमार' है "कुत्सित कामवासनावाला, तथा 'मार:'= मार देनेवाले अतिकामवाला युवा कुमार। सर्वकेशक:= सर्वेभ्यः केशं क्लेशं करोतीति। सर्व+केश+कृ (ड: प्रत्यय, डित्त्वात् टिलोपः। केश:= क्लेश:; "केश: क्लिश्नाति" (दशपाद्युणादिवृत्ति ९।२)। गन्धर्व:= गीतिरूपा वाला गा धारयतीति (सायण; ४।३७।७)। श्वा और कपि अतिकामी होते हैं।]
विषय
हानिकारक रोग-जन्तुओं के नाश का उपदेश।
भावार्थ
रोगकीटों के रूपों का वर्णन करते हैं। (एकः श्वा इव) एक गन्धर्व नामक रोगकीट कुत्ते के समान, उसके स्वभाव वाला या उसके आकार वाला है और (एकः) एक (कपिः, इव) बन्दर के समान है वह (कुमारः) बड़ी कठिनता से प्राण त्याग करता एवं बुरी तरह से अपने शिकार रोगी को मारता है। (सर्वकेशकः) उसके समस्त शरीर पर रोम होते हैं। जिस प्रकार सर्वाङ्गसुन्दर केश बनाये कुमार = नवयुवक, आंखों के आगे दर्शनीय सुन्दर वेश बनाकर अपनी कुत्ते की सी कामप्रियता और बन्दर की सी कुरूपता को छिपाकर स्त्रियों में विचरता और उनके मन हरता है उसी प्रकार ये रोगकीट भी (दृशः) चक्षु के (प्रियः इव) प्रिय होकर (स्त्रियः) अपनी मादा जन्तुओं पर (सचते) जाता है उसको (वीर्यावता) वीर्यवाली (ब्रह्मणा) ‘ब्रह्म’ नामक ओषधि या वेद ज्ञान से (इतः) यहां से इस नगर, ग्राम, गृह, शरीर से (नाशयामसि) हम विनाश करें, भगादें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बादरायणिर्ऋषिः। अजशृङ्गी अप्सरो देवता। १, २, ४, ६, ८-१० अनुष्टुभौ। त्र्यवसाना षट्पदी त्रिष्टुप्। ५ प्रस्तारपंक्तिः। ७ परोष्णिक्। ११ षट्पदा जगती। १२ निचत्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destroying Insects, Germs and Bacteria
Meaning
One is like a dog, another like a monkey, yet another with hair all over the body is a cruel killer and, being pretty and dear to the eye, afflicts the women. These psychic diseases we destroy and root out from here with the powerful Brahmi herb.
Translation
One like a dog, one like a monkey, youthful, having hair all over his body, looking beautiful, the soil-germ approaches a woman. Him we drive away from here with our powerful intellect (knowledge).
Translation
I with the powerful herb called Brahma, drive away from here that Gandharva, germ which one, youthful, having hair like a dog, like a monkey becoming as one lovely to eyes pursues a woman.
Translation
One germ is like a dog in appearance and nature, another is like a monkey, one is a deadly killer of its victim, another is completely decked with hair. Sothe germ, putting on a lovely look, pursues a dame. Him with an efficacious medicine named Brahmi, we scare and cause to vanish hence.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(श्वा) श्वन्नुक्षन्०। उ० १।१५९। इति टुओश्वि गतिवृद्ध्योः कनिन्। श्वाऽऽशुयायी शवतेर्वास्याद् गतिकर्मणः श्वसितेर्वा-निरु० ३।१८। गतिशीलः। वृद्धिशीलः (इव) अवधारणे (एकः) अद्वितीयः (कपिः) कुण्ठिकम्योर्नलोपश्च। ४।१४४। इति कपि चलने-ह। कम्पते क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। कम्पयिता। क्रोधशीलः (कुमारः) कमेः किदुच्चोपधायाः। उ० ३।१३८। इति कमु कान्तौ−आरन्। कमनीयः (सर्वकेशकः) काशृ दीप्तौ-वुन्। अकारस्य एकारः। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद्वा, निरु० १२।२५। सर्वप्रकाशकः (प्रियः) प्रीतिकरः (दृशे) अ० १।६।३। द्रष्टुम्। सर्वदर्शनाय (भूत्वा) (गन्धर्वः) पृथिव्यादिधारकः परमेश्वरः (स्त्रियः) अ० १।८।१। स्त्यै संघाते ड्रट्, ङीप्। सर्वाः संहतीः। समूहान् (तम्) तन आघाते-ड। तानयतीति तः। आहन्तारं चोरम् (इतः) अस्मात् स्थानात् (नाशयामसि) नाशयामः (ब्रह्मणा) परमेश्वरेण सह (वीर्यावता) अतिशयसामर्थ्ययुक्तेन ॥
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