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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बादरायणिः देवता - अप्सरासमूहः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
    56

    यत्र॑ वः प्रे॒ङ्खा हरि॑ता॒ अर्जु॑ना उ॒त यत्रा॑घा॒टाः क॑र्क॒र्यः॑ सं॒वद॑न्ति। तत्परे॑ताप्सरसः॒ प्रति॑बुद्धा अभूतन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । व॒: । प्र॒ऽई॒ङ्खा: । हरि॑ता: । अर्जु॑ना: । उ॒त । यत्र॑ । आ॒घा॒टा: । क॒र्क॒र्य᳡: । स॒म्ऽवद॑न्ति । तत् । परा॑ । इ॒त॒ । अ॒प्स॒र॒स॒: । प्रति॑ऽबुध्दा: । अ॒भू॒त॒न॒ ॥३७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र वः प्रेङ्खा हरिता अर्जुना उत यत्राघाटाः कर्कर्यः संवदन्ति। तत्परेताप्सरसः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । व: । प्रऽईङ्खा: । हरिता: । अर्जुना: । उत । यत्र । आघाटा: । कर्कर्य: । सम्ऽवदन्ति । तत् । परा । इत । अप्सरस: । प्रतिऽबुध्दा: । अभूतन ॥३७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गन्धर्व और अप्सराओं के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्र) जहाँ (प्रेङ्खाः) उत्तम गतिवाली, (हरिताः) स्वीकार करने योग्य, (अर्जुनाः) उपार्जन करनेवाली, (उत) और (यत्र) जहाँ (आघाटाः) चेष्टा करती हुई (कर्कर्यः) उत्तम कर्म ग्रहण करनेवाली प्रजाएँ (वः) तुम्हारा (संवदन्ति) सम्वाद करती हैं। (तत्) वहाँ (अप्सरसः) हे आकाशादि में व्यापक शक्तियो ! (परा) पराक्रम से (इत) प्राप्त हो, तुम (प्रतिबुद्धाः) प्रत्यक्ष जानी हुई (अभूतन) हो चुकी हो ॥५॥

    भावार्थ

    उद्योगी पुरुषार्थी पुरुष परमेश्वर की महिमा साक्षात् करके आनन्दित होते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(यत्र) (वः) युष्माकम् (प्रेङ्खाः) प्र+ईखि गतौ-घञ्, टाप्। प्रकृष्टगतयः (हरिताः) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। इति हृञ् हरणे=स्वीकारे-इतन, टाप् हरणीयाः स्वीकरणीयाः (अर्जुनाः) अर्ज अर्जने प्रतियत्ने च उनन्, टाप्। अर्जनशीलाः। प्रयत्नस्वभावाः (उत) अपि च (आघाटाः) आङ्+घट चेष्टायाम्-घञ्। चेष्टायमाणाः (कर्कर्यः) कृदाधा०। उ० ३।४०। इति डुकृञ् करणे-क, रा दानग्रहणयोः-क, ङीप्। कर्कं रातीति कर्करी। कर्मग्रहीत्र्यः प्रजाः (सम्वदन्ति) सम्वादं कुर्वन्ति। अन्यत् पूर्ववत् म० ३ ॥

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    विषय

    अर्जुनाः, आघाटा:, कर्कर्य:

    पदार्थ

    १.हे (अप्सरस:) = जलप्राय स्थानों में विहरण करनेवाले कृमियो! (यत्र) = जहाँ (वः) = तुम्हें (प्रेडाः) = दूर करने के लिए [प्रईख] (हरिता:) = हरिद्वर्ण (अर्जुना:) = अर्जुनवृक्ष उत और (यत्र) = जहाँ (आघाटा:) = [आहन्] समन्तात् तुम्हारा हनन करती हुई अपामार्ग ओषधि तथा (कर्कर्यः) = [gourd] घिया की बेलें (संवदन्ति) = परस्पर संवाद-सा करती हैं, अत: तुम (तत् परेत) = वहाँ से दूर भाग जाओ। यहाँ तो ये 'अर्जुनवृक्ष, अपामार्ग व घिया की बेलें' (प्रतिबुद्धा अभूतन) = जागरित हो गई हैं, अत: अब यहाँ तुम्हारा काम नहीं।

    भावार्थ

    रोगकृमियों को दूर करने के लिए 'अर्जुनवृक्ष, अपामार्ग तथा घिया की बेलों' का रोपण करना चाहिए।

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    भाषार्थ

    [हे अप्सरसः] (यत्र) जिस स्थान में (व:) तुम्हारे (हरिताः, अर्जुनाः उत) हरे और श्वेत वर्णोंवाले (प्रेङ्खा) झूले हैं, (यत्र) जिस स्थान में (जघाटा:) संघट्ट में वर्तमान (कर्कर्यः) कड़कड़ शब्द करनेवाले झींगुर१ (सम् वदन्ति) परस्पर मिलकर संवाद या शोर-गुल करते हैं, (तत्) उस स्थान में (परा इत) हमसे पराङ्मुख होकर तुम चले जाओ (अप्सरसः) हे अप् अर्थात् जल में सरण करनेवाले मादा-कीटाणुओ! (प्रतिबुद्धाः अभूतन) तुम जाने-पहिचाने हो गये हो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में वन या अरण्यानी अर्थात महारण्य-स्थल का वर्णन है। महावृक्षों की शाखाओं के प्रलम्बों द्वारा तथा लताओं द्वारा उत्पन्न झूले। आघाटा:= 'घट संघाते' (चुरादिः), अथवा 'घटि भाषार्थः' (चुरादिः), मानो परस्पर भाषण करते हुए झींगुर, "संवदन्ति"।] [१. संभवतः ये झींगुर ऋग्वैदिक 'चिच्चिक' हैं। यथा 'वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः। आघाटिभिरिव धावयन्नरण्यानिर्महीयते" (ऋ० १०।१४६।२; अरण्यानी सूक्त) वृषारव है वर्षा करनेवाले मेघ का "आ रव" अर्थात् चारों दिशाओं में व्यापी गर्जन। इस गर्जन को उपलक्ष्य करके मानो जल-याचन के लिए 'चिच्चिक' चि-चि आवाजें करता है। अवति= अव याचने (भ्वादिः)। चि-चि आवाजें सम्भवतः झींगुरों का संवदन है संवाद करना है।]

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    विषय

    हानिकारक रोग-जन्तुओं के नाश का उपदेश।

    भावार्थ

    और (यत्र) जहां (वः) तुम्हारे लिये (प्रेङ्खाः) हिलते जुलते (हरिताः) हरे (अर्जुनाः) अर्जुन वृक्ष हैं (उत) और (यत्र) जहां (आघाटाः) बड़े बल से पीटे गये (कर्कर्यः) नगाड़े आदि (संवदन्ति) बजते हैं (तत्) वहां से भी हे (अप्सरसः) प्रजा में फैलने वाली व्याधियो ! तुम (परा-इत) भाग जाओ और प्रतिबुद्धाः अभूतन) व्याकुल और नष्ट हो जाओ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बादरायणिर्ऋषिः। अजशृङ्गी अप्सरो देवता। १, २, ४, ६, ८-१० अनुष्टुभौ। त्र्यवसाना षट्पदी त्रिष्टुप्। ५ प्रस्तारपंक्तिः। ७ परोष्णिक्। ११ षट्पदा जगती। १२ निचत्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destroying Insects, Germs and Bacteria

    Meaning

    O diseases, where against you are green, waving Arjuna trees, there are aghata (apamarga) and karkari, waving with rustling leaves, there off you go, you are well diagnosed.

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    Translation

    There, where your swings are green and whitish, where cymbals and lutes sound together in harmony, may you go, O aquatic plants. You have been recognized.

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    Translation

    Let these apsaras go away from the place where there are the leaves and wings of Arjuna plant green and where there sound great drums beaten with might. Otherwise these apsaras become sparked.

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    Translation

    There where green and white trees are swinging for you, and lutes and cymbals sound in tune, run away thence, O diseases spread among people, and be uprooted.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(यत्र) (वः) युष्माकम् (प्रेङ्खाः) प्र+ईखि गतौ-घञ्, टाप्। प्रकृष्टगतयः (हरिताः) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। इति हृञ् हरणे=स्वीकारे-इतन, टाप् हरणीयाः स्वीकरणीयाः (अर्जुनाः) अर्ज अर्जने प्रतियत्ने च उनन्, टाप्। अर्जनशीलाः। प्रयत्नस्वभावाः (उत) अपि च (आघाटाः) आङ्+घट चेष्टायाम्-घञ्। चेष्टायमाणाः (कर्कर्यः) कृदाधा०। उ० ३।४०। इति डुकृञ् करणे-क, रा दानग्रहणयोः-क, ङीप्। कर्कं रातीति कर्करी। कर्मग्रहीत्र्यः प्रजाः (सम्वदन्ति) सम्वादं कुर्वन्ति। अन्यत् पूर्ववत् म० ३ ॥

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