अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
आ सु॒ष्वय॑न्ती यज॒ते उ॒पाके॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ सदतां॒ नि योनौ॑। दि॒व्ये योष॑णे बृह॒ती सु॑रु॒क्मे अधि॒ श्रियं॑ शुक्र॒पिशं॒ दधा॑ने ॥
स्वर सहित पद पाठआ । सु॒स्वय॑न्ती॒ इति॑ । य॒ज॒ते इति॑ । उ॒पाके॒ इति॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । स॒द॒ता॒म् । नि । योनौ॑ । दि॒व्ये इति॑ । योष॑ण॒ इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । सु॒रु॒क्मे इति॑ सु॒ऽरु॒क्मे । अधि॑ । श्रिय॑म् । शु॒क्र॒ऽपिश॑म् । दधा॑ने॒ इति॑ ॥१२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सुष्वयन्ती यजते उपाके उषासानक्ता सदतां नि योनौ। दिव्ये योषणे बृहती सुरुक्मे अधि श्रियं शुक्रपिशं दधाने ॥
स्वर रहित पद पाठआ । सुस्वयन्ती इति । यजते इति । उपाके इति । उषसानक्ता । सदताम् । नि । योनौ । दिव्ये इति । योषण इति । बृहती इति । सुरुक्मे इति सुऽरुक्मे । अधि । श्रियम् । शुक्रऽपिशम् । दधाने इति ॥१२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(आसुष्वयन्ती आ सुष्वयन्ती) सर्वत्र मानो हास करती हुई, हँसती हुई, (यजते) अग्निहोत्ररूपी यज्ञसम्पादन करती हुई, (उपाके) एक दूसरे के साथ मिलकर गति करती हुई (उपासानक्ते) उषा और रात्रि (योनौ) आकाशरूपी गृह में (नि सदताम्) स्थित हों (बृहती) महाकाय, (सुरुक्मे) उत्तम दीप्तिवालो या उत्तम आभूषणोंवाली, (दिव्ये योषणे) ये दो दिव्य स्त्रियां (शुक्र-पिशम् ) सफेद और पिशङ्ग (श्रियम् ) शोभा को (अधि दधाते) धारण करती हुई हों ।
टिप्पणी -
[उषा और नक्ता [ रात्रि] मानो निजगृह अर्थात् आकाश में बैठी हुईं, प्रसन्नता से हंसती हैं। उषा निज प्रकाशरूपी हास कर रही है, नक्ता मानो रात्रि में चमकते तारागणों के रूप में हास कर रही है। उषा ने मानो निज सिर पर सूर्यरूपी चमकता आभूषण धारण किया हुआ है, और नक्ता ने चाँदरूपी आभूषण। उषा ने शुक्र अर्थात् शुक्ल वर्ण धारण किया हुआ है, नक्ता ने पिश अर्थात पिशङ्ग वर्ण । पिशङ्ग है मिश्रित वर्ण। रात्रि का अन्धकार तथा ताराओं की शुभ्र चमक और धब्वोंवाले चांद की चमक यह मिश्रितवर्ण है। जोकि नक्ता ने धारण किया हुआ है। योनिः गृहनाम (निरुक्त ३।४)। उषासानक्ता में 'उषासा' अर्थात 'उषापद' निज अर्थ के साथ-साथ 'दिन' का भी उपलक्षक है। उषा है दिन का प्रारम्भिक काल। तभी 'उपाके' पद सार्थक हो सकता है। उपाके= उपगते, परस्पर की समीपता को प्राप्त; उप (समीपता) +अक् गतौ ('कुटिलायाम्', भ्वादि ), यहाँ केवल गत्यर्थ अभिप्रेत है। उपासानक्ता परस्पर उपगत हैं। दिन की समाप्ति के होते ही उसके साथ रात्रि की उपगति हो जाती है, और रात्रि की समाप्ति के होते ही उसके साथ दिन की उपगति हो जाती है।]