अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 11
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत्पुरो॒गाः। अ॒स्य होतुः॑ प्र॒शिष्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतं ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒द्य: । जा॒त: । वि । अ॒मि॒मी॒त॒ । य॒ज्ञम् । अ॒ग्नि: । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒व॒त् । पु॒र॒:ऽगा: । अ॒स्य । होतु॑: । प्र॒ऽशिषि॑ । ऋ॒तस्य॑ । वा॒चि । स्वाहा॑ऽकृतम् । ह॒वि: । अ॒द॒न्तु॒ । दे॒वा: ॥१२.११॥
स्वर रहित मन्त्र
सद्यो जातो व्यमिमीत यज्ञमग्निर्देवानामभवत्पुरोगाः। अस्य होतुः प्रशिष्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठसद्य: । जात: । वि । अमिमीत । यज्ञम् । अग्नि: । देवानाम् । अभवत् । पुर:ऽगा: । अस्य । होतु: । प्रऽशिषि । ऋतस्य । वाचि । स्वाहाऽकृतम् । हवि: । अदन्तु । देवा: ॥१२.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(जातः) उत्पन्न अग्नि (सद्यः) तत्काल (यज्ञम व्यमिमीत) यज्ञ का निर्माण करती है, (अग्निः) अग्नि ( देवानाम्) याज्ञिक देवों तथा वायु आदि देवों का (पुरोगा: अभवत्) अग्रगामी अर्थात् नेता हुआ है। (तस्य) यज्ञ के (प्रशिषि) प्रशासन में, अर्थात् यज्ञ की विधि के अनुशार (अस्य होतु: वाचि) इस अग्निरूप होता की जिह्वा में (स्वाहा कृतम्) स्वाहा द्वारा हुत किये गये (हविः१) अर्थात् अन्न को तथा हवियों [मन्त्र १०] को (देवा:) ऋत्विक् आदि मानुष-देव, तथा वायु आदि दिव्य तत्व (अदन्तु) भक्षण करें।
टिप्पणी -
[होतुः= हु दाने (जुहोत्यादिः)। अग्नि 'होता' है, दाता है। अग्नि में 'पाथः' की आहुतियाँ देकर, यज्ञशेष का भक्षण ऋत्विक्, यजमान तथा पत्नी आदि करते है, मानो अग्नि ने खाने के लिए उन्हें यज्ञशेष दिया है। इसी प्रकार हवियों की भी आहुतियों से निष्पन्न यज्ञिय-धूम, अग्नि ने ही वायु आदि दिव्य-तत्त्वों को दिये हैं। वाचि=वेद में वाक् और जिह्वा पद लगभग पर्यायवाचक भी हैं। अग्नि की सात जिह्वाएं अर्थात् ज्वालाएं होती हैं, जिन्हें कि वाक् कहा है, इन सात जिह्वाओं में आहुतियाँ दी जाती हैं (मुण्डक उप० १, खं० २, सन्दर्भ ४)। जिह्वा वाङ्नाम (निघं० १।११) ऋतम् =यज्ञ; यथा ऋतावृधा=यज्ञवधो वा (निरुक्त १२।३।३३)।] [१. हवि पद 'पाथः काया हवींषि' दोनों का सूचक हैं (मंत्र १०)। पाथ: "अन्नमपि पाथः उच्यते, पानादेव" (निरुक्त ६/२/६) तथा (निरुक्त ८।३।१७) । हवि: पर निष्पन्न है 'हु' धातु से, जिसके दो अर्थ हैं, अन्न और दान। अदन अर्थ में हवि:, है खाद्यान्न [पाथः] और दानार्थ में हवि: है यज्ञियाग्नि में आहुतियों द्वारा प्राकृतिक वायु आदि में देय हवियां।]