अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
यदि॑ चि॒न्नु त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ रणे॑रणे अनु॒मद॑न्ति विप्राः। ओजी॑यः शुष्मिन्त्स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्दु॒रेवा॑सः क॒शोकाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । चि॒त् । नु। त्वा॒ । धना॑ । जय॑न्तम् । रणे॑ऽरणे । अ॒नु॒ऽमद॑न्ति । विप्रा॑: । ओजी॑य: । शु॒ष्मि॒न् । स्थि॒रम् । आ ।त॒नु॒ष्व॒ । मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । दु॒:ऽएवा॑स: । क॒शोका॑: ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि चिन्नु त्वा धना जयन्तं रणेरणे अनुमदन्ति विप्राः। ओजीयः शुष्मिन्त्स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्दुरेवासः कशोकाः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । चित् । नु। त्वा । धना । जयन्तम् । रणेऽरणे । अनुऽमदन्ति । विप्रा: । ओजीय: । शुष्मिन् । स्थिरम् । आ ।तनुष्व । मा । त्वा । दभन् । दु:ऽएवास: । कशोका: ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
हे सद्गृहस्थ ! (यदि चित् तु) यदि अब (रणेरणे) देवासुर-संग्रामों में, (धना जयन्तम्) आसुरी सम्पत्ति को जीतते हुए (त्वा) तुझे, (विप्राः) मेधावी लोग (अनुमदन्ति) अनुमोदन करते हैं, तो (शुष्मिन्) हे बलशाली ! (ओजीयः) निज ओजस्वी धनुष् को (स्थिरम्) स्थिर रूप में (आ तनुष्व ) ताने रख, ताकि (दुरेवास:) दुर्गंतिवाले, (कशोकाः) दुर्गति के निवासरूप असुर (त्वा) तुझे ( मा दभन् ) हित न करें।
टिप्पणी -
[यदि मोक्ष और सांसारिक मार्ग इन दोनों पर चलते हुए [ मन्त्र ३] तुझे आसुरी भावनाएँ बाधा उपस्थित करती हैं, और उन बाधाओं को जिस विधि से तू परास्त करता है और विप्र लोग यदि उस विधि का अनुमोदन करते हैं, तो आसुरी भावनाओं को पराजित करते रहने के लिए निज आध्यात्मिक शस्त्रास्त्रों को सदा सुसज्जित रख । नु= सम्प्रति, अब; यथा "नू चित् इति निपातः पुराणनवयोः” (निरुक्त ४ । ३। १७ ), मन्त्रपठित नु चित्=नू चित् (निरुक्त) । दुरेवास:- दुरेवाः, दुर् + एवा: एवै:= अयनैः (निरुक्त २।७।२५) कशोका:= कश ( गति, दुर्गति)+ ओकस घर । अन्यत्र पाठ है "यातुधाना दुरेवाः"। "रणे-रणे" में द्विरुक्ति है । देवासुर - संग्राम में नानाविध असुर हैं, यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि । इनकी पराजय के लिए नाना प्रकार के युद्ध करने होते हैं, और नानाविध शस्त्रास्त्रों का अवलम्बन करना होता है। यथा काम के पराजय के लिए शस्त्रास्त्र हैं, पवित्र विचार, महात्माओं का संग, सच्छास्त्रों का स्वाध्याय, उपन्यासों को न पढ़ना, कामोद्दीपक दृश्यों को न देखना, न कामोद्दीपक रागों को सुनना आदि । इसी प्रकार अन्य आसुरी भावों में भी इनपर विजय के लिए भिन्न-भिन्न शस्त्रास्त्र हैं। क्रोध के सम्बन्ध में शस्त्रास्त्र है, क्षमा । समग्र सूक्त आध्यात्मिक भावनाओं और साधनों से ओत-प्रोत है।