अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
स्तु॒ष्व व॑र्ष्मन्पुरु॒वर्त्मा॑नं॒ समृभ्वा॑णमि॒नत॑ममा॒प्तमा॒प्त्याना॑म्। आ द॑र्शति॒ शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ प्र स॑क्षति प्रति॒मानं॑ पृथि॒व्याः ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒ष्व । व॒र्ष्म॒न् । पु॒रु॒ऽवर्त्मा॑नम् । सम् । ऋभ्वा॑णम् । इ॒नऽत॑मम् । आ॒प्तम् । आ॒प्त्याना॑म् ।आ । द॒र्श॒ति॒ । शव॑सा । भूरि॑ऽओजा: । प्र । स॒क्ष॒ति॒ । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । पृ॒थि॒व्या: ॥२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुष्व वर्ष्मन्पुरुवर्त्मानं समृभ्वाणमिनतममाप्तमाप्त्यानाम्। आ दर्शति शवसा भूर्योजाः प्र सक्षति प्रतिमानं पृथिव्याः ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुष्व । वर्ष्मन् । पुरुऽवर्त्मानम् । सम् । ऋभ्वाणम् । इनऽतमम् । आप्तम् । आप्त्यानाम् ।आ । दर्शति । शवसा । भूरिऽओजा: । प्र । सक्षति । प्रतिऽमानम् । पृथिव्या: ॥२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(वर्ष्मन्) हे शक्तिशालिन् ! या स्तुतियों की वर्षा करनेवाले स्तोत: ! तू (पुरुवर्त्मानम्१) नाना मार्गोंवाले, (ऋभ्वाणम् ) बहुभासमान, (इनतमम् ) स्वामियों के स्वामी, (आप्त्यानाम् ) प्रापणीय पदार्थों में (आप्तम्) पूर्वतः प्राप्त हुए, या आप्तों में आप्त परमेश्वर की ( स्तुष्व) स्तुति किया कर । (भूर्योजाः) प्रभूत ओजस्वाला परमेश्वर ( शवसा ) निज बल द्वारा (आ दर्शति) सब [आसुर भावों को] विदीर्ण कर देता है और ( पथिव्याः ) पृथिवी की (प्रतिमानम्) प्रतिमा के रूप को (सक्षति) प्राप्त है, अर्थात् पृथिवीवत् सबका पालक है ।
टिप्पणी -
[ऋभु=ऋभवः "उरु भान्तीति वा " (निरुक्त ११।२।१५) । आदित्यरश्मयोऽप्यृभवः उच्यन्ते (निरुक्त ११।२।१५)। अर्थात् बहु भासमान और आदित्यरश्मियों की तरह प्रकाशमान परमेश्वर। आप्तम् = परमेश्वर नित्य और व्यापक होने से सबको पूर्वतः ही प्राप्त है । सक्षति गतिकर्मा (निघं० २।१४ ); गतेस्त्रयोsर्थाः ज्ञानं गतिः प्राप्तिश्च। दर्शति= दृ विदारणे; अथवा दृशिर् प्रेक्षणे ( भ्वादिः ) अर्थात् आसुर भावों पर कड़ी दृष्टि रखता है । ] [१. ब्रह्माण्ड में नक्षत्र तारे, सूर्य, ग्रह, उपग्रह पुच्छल तारा, सब मिलकर असंख्य हैं, और इनमें से प्रत्येक अपने-अपने मार्ग पर गति कर रहा है, और परस्पर टकराते नहीं, क्योंकि परमेश्वर इन मार्गों का स्वामी है, और इनकी गतियों का नियन्त्रण कर रहा है।]