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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त

    नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रे॒ परे॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे। आ स्था॑पयत मा॒तरं॑ जिग॒त्नुमत॑ इन्वत॒ कर्व॑राणि॒ भूरि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । तत् । द॒धि॒षे॒ । अव॑रे । परे॑ । च॒ । यस्मि॑न् । आवि॑थ । अव॑सा । दु॒रो॒णे । आ । स्था॒प॒य॒त॒ । मा॒तर॑म् । जि॒ग॒त्नुम् ।अत॑: । इ॒न्व॒त॒ । कर्व॑राणि । भूरि॑॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि तद्दधिषेऽवरे परे च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे। आ स्थापयत मातरं जिगत्नुमत इन्वत कर्वराणि भूरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । तत् । दधिषे । अवरे । परे । च । यस्मिन् । आविथ । अवसा । दुरोणे । आ । स्थापयत । मातरम् । जिगत्नुम् ।अत: । इन्वत । कर्वराणि । भूरि॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 6

    भाषार्थ -
    हे परमेश्वर ! (अवरे, परे च) अवरलोक तथा पर के लोकरूपी (यस्मिन् दुरोणे) जिस घर में (अवसा) उस-उसकी रक्षा की भावना से (आविथ) तू प्रविष्ट हुआ-हुआ है, उस घर में रहकर तू (तत् ) उसे ( नि दधिषे) नितरां धारण करता है । [ हे मनुष्यो !] (जिगत्नुम्) सर्वगत या सर्वविजयिनी उस पारमेश्वरी (मातरम् ) माता को ( आ स्थापयत) तुम निज हृदयों में स्थापित करो, (अतः) और इस माता से प्रेरणाएं पाकर (भूरि) प्रभूत (कर्वराणि) श्रेष्ठ कर्म ( इन्वत ) करो ।

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