अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
त्वे क्रतु॒मपि॑ पृञ्चन्ति॒ भूरि॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भ॑व॒न्त्यूमाः॑। स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे इति॑ । क्रतु॑म् । अपि॑ । पृ॒ञ्च॒न्ति॒ । भूरि॑ । द्वि: । यत् । ए॒ते । त्रि: । भव॑न्ति । ऊमा॑: । स्वा॒दो: । स्वादी॑य: । स्वा॒दुना॑ । सृ॒ज॒ । सम् । अ॒द: । सु । मधु॑। मधु॑ना । अ॒भि । यो॒धी॒: ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे क्रतुमपि पृञ्चन्ति भूरि द्विर्यदेते त्रिर्भवन्त्यूमाः। स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधीः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वे इति । क्रतुम् । अपि । पृञ्चन्ति । भूरि । द्वि: । यत् । एते । त्रि: । भवन्ति । ऊमा: । स्वादो: । स्वादीय: । स्वादुना । सृज । सम् । अद: । सु । मधु। मधुना । अभि । योधी: ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(त्वे) तुझमें हे परमेश्वर ! ( भूरि ) प्रभूत रूप में (क्रतुम्) कर्म और प्रज्ञा को (अपि, पृञ्चन्ति) भी सम्पृक्त कर देते हैं, समर्पित कर देते हैं [ सद्गृहस्थी ]; (यत् ) जबकि वे (द्विः) दो-दो होते हुए (त्रिः भवन्ति) तीन-तीन हो जाते हैं, (ऊमाः) और प्राणिमात्र के रक्षक हो जाते हैं। [ हे सद्गृहस्थ !] तू (स्वादोः) स्वादु से (स्वादीयः) अधिक स्वादु को, (स्वादुना) स्वादु के साथ, (सम् सृज) संसर्ग कर। ( अदः ) उस ( सुमधु) उत्तम मधु को (मधुना) मधु के साथ ( अभि योधी:) साक्षात् मिश्रित कर।
टिप्पणी -
[क्रतुः कर्मनाम, क्रतुः प्रज्ञानाम (निघं० २।१; ३।९) । पृञ्चन्ति पुची सम्पर्के (रुधादिः)। (द्वि। त्रिः) विवाह हो जाने पर दो-दो, और एक पुत्र पैदा हो जाने पर तीन-तीन । आदर्श गृहस्थी के लिए एक पुत्र पर्याप्त माना है, जोकि उत्तराधिकारी हो सके । ऊमाः =अव रक्षणे । गृहस्थी के लिए पञ्चमहायज्ञों का विधान है । पञ्च महायज्ञों से गृहस्थी प्राणिमात्र की सेवा करते हैं। सांसारिक सुख स्वादु है, परन्तु मोक्ष का सुख इससे भी अधिक स्वादु है। मोक्षसुख के साथ-साथ सांसारिक सुख का संसर्ग अर्थात् मेल करना अभीष्ट है तथा मधुरूप सांसारिक सुख का मिश्रण मधुरूप मोक्षसुख के साथ करना चाहिए-यह गृहस्थी के लिए उपदेश है। अभियोधी:= अभि = साक्षात् "यु" मिश्रणे (अदादि:) । सूक्त के अवशिष्ट मन्त्रों में भी गृहस्थी का वर्णन हुआ है । अभियोधी:=अभि +यो+धी: (हेधिः)। विसर्गान्तदीर्घः ईकारः छान्दसः। "मधुनाभि योधि " (तैत्तिरीय संहिता)। ]