अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
इ॒मा ब्रह्म॑ बृ॒हद्दि॑वः कृणव॒दिन्द्रा॑य शू॒षम॑ग्रि॒यः स्व॒र्षाः। म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजा॒ तुर॑श्चि॒द्विश्व॑मर्णव॒त्तप॑स्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा । ब्रह्म॑ । बृ॒हत्ऽदि॑व: । कृ॒ण॒व॒त् । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒ग्रि॒य: । स्व॒:ऽसा: । म॒ह: । गो॒त्रस्य॑ । क्ष॒य॒ति॒ । स्व॒ऽराजा॑ । तुर॑: । चि॒त् । विश्व॑म् । अ॒र्ण॒व॒त् । तप॑स्वान् ॥२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा ब्रह्म बृहद्दिवः कृणवदिन्द्राय शूषमग्रियः स्वर्षाः। महो गोत्रस्य क्षयति स्वराजा तुरश्चिद्विश्वमर्णवत्तपस्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठइमा । ब्रह्म । बृहत्ऽदिव: । कृणवत् । इन्द्राय । शूषम् । अग्रिय: । स्व:ऽसा: । मह: । गोत्रस्य । क्षयति । स्वऽराजा । तुर: । चित् । विश्वम् । अर्णवत् । तपस्वान् ॥२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(अग्रियः) सर्वाग्रणी, (स्वर्षाः) सुखप्रदाता ( बृहद्दिवः१) महाद्युति - वाले परमेश्वर ने ( इमा ब्रह्म = इमानि ब्रह्माणि) इन मन्त्रों या अथर्ववेद के मन्त्रों को,(शूषम् = शूषाणि) जोकि सुखदायी हैं,-(इन्द्राय२) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा के लिए ( कृणवत् ) प्रकट किया है । (स्वराजा) स्वयं राजमान अर्थात् प्रकाशमान परमेश्वर (महः गोत्रस्य) महान् तथा रश्मियों के पालक सूर्य में ( क्षयति ) निवास करता है, और ( तपस्वान् ) प्रतापी या ऐश्वर्यवान् वह (तुरः चित् ) त्वरया अर्थात् शीघ्र ही ( विश्वम्) विश्व में (अर्णवत्) व्याप्त हो जाता है।
टिप्पणी -
[बृहद् दिवः=बृहत् ( महान् ) +दिवः (द्युतिवाला), दिव्+क: ( इगुपधत्वात्, अष्टा० ३।१।१३५)। स्वर्षाः=स्वः (सुख)+षणु दाने। दिव:= दिव् द्युति (दिवादिः), परमेश्वर द्युतिमान् है, स्वयं द्युतिमान् है, अतः वह सूर्य आदि को द्यृतिसम्पन्न करता है, वह ज्ञानद्युति से भी सम्पन्न है, अतः वह इन्द्र, अर्थात् जीवात्मा को भी मन्त्र प्रदान या वेद प्रदान करता है।अथर्ववेद का नाम ब्रह्मवेद भी है। शूषम् सुखनाम (निघं० ३।६ )। गोत्रस्य = गावः सूर्यरश्मयः तेषां त्राता सूर्यः, तस्य । तपस्वान्=तप ऐश्वर्ये (दिवादिः)।] [१. बृहद्दिवः= अथवा "दिवः बृहद्" अर्थात् द्युलोक से बड़ा ब्रह्म, परमेश्वर। २. महर्षि दयानन्द के अनुसार सूक्तों और मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा हैं ऋषि अर्थात् मानुष=ऋषि । ऐसे मानुष ऋषियों की सत्ता न हो तो सूक्तों और मन्त्रों का न पूर्वकालीन होना सम्भव है, न "तत् समकालीन", अतः जिन सूक्तों और मन्त्रों में पठित नामपदों को ऋषि के रूप में अनुक्रमणिका आदि में कहा है, ये सब काल्पनिक हैं, वास्तविक नहीं, ऐसे स्थलों में वास्तविक ऋषिनाम अलभ्य है, या ऐसे स्थलों में मन्त्रार्थ-द्रष्टा या मन्त्र-प्रवक्ता कोई मानुष-ऋषि कभी हुए ही नहीं। अथवा यह माना जा सकता है कि वेदाविर्भाव के पश्चात्, मन्त्र या सूक्त में पठित ऋषिनामों के सदृश, निज नाम धारण कर, उन नामों द्वारा वे मन्त्र या सूक्त के प्रवक्ता या अर्थद्रष्टा हुए हैं। ये विकल्प केवल अनुसंधानार्थ दिये हैं।]