अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - इळा, सरस्वती, भारती
छन्दः - द्विपदा साम्नीबृहती
सूक्तम् - अग्नि सूक्त
द्वारो॑ दे॒वीरन्व॑स्य॒ विश्वे॑ व्र॒तं र॑क्षन्ति वि॒श्वहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्वार॑: । दे॒वी: । अनु॑ । अ॒स्य॒ । विश्वे॑ । व्र॒तम् । र॒क्ष॒न्ति॒ । वि॒श्वहा॑ ॥२७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वारो देवीरन्वस्य विश्वे व्रतं रक्षन्ति विश्वहा ॥
स्वर रहित पद पाठद्वार: । देवी: । अनु । अस्य । विश्वे । व्रतम् । रक्षन्ति । विश्वहा ॥२७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(देवी:) कान्तियुक्त अर्थात् चमकते हुए ( विश्वा = विश्वा:) [ काठक ] सब (द्वारः) दरवाजे, (विश्वहा) सब दिनों, (अनु) निरन्तर, (अस्य) इस महान्-अग्नि परमेश्वर सम्बन्धी (व्रतम्) यज्ञकर्म की ( रक्षन्ति) रक्षा करते हैं
टिप्पणी -
[देवी:= दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्न- कान्तिगतिषु (दिवादिः)। व्रतं कर्मनाम (निघं० २।१)। विश्वहा= विश्वानि अहानि। अभिप्राय यह कि यज्ञशाला के सब दर्वाजे प्रतिदिन निरन्तर खुले रहते हैं ताकि यज्ञकर्ता और यज्ञ भक्त लोग यज्ञकर्म और उसके दर्शन के लिए आ सकें]