अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 11
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - इळा, सरस्वती, भारती
छन्दः - षट्पदानुष्टुब्गर्भा परातिजगती
सूक्तम् - अग्नि सूक्त
वन॑स्प॒तेऽव॑ सृजा॒ ररा॑णः। त्मना॑ दे॒वेभ्यो॑ अ॒ग्निर्ह॒व्यं श॑मि॒ता स्व॑दयतु ॥
स्वर सहित पद पाठवन॑स्पते । अव॑ । सृ॒ज॒ । ररा॑ण: । त्मना॑ । दे॒वेभ्य॑: । अ॒ग्नि: । ह॒व्यम् । श॒मि॒ता । स्व॒द॒य॒तु॒ ॥२७.११॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पतेऽव सृजा रराणः। त्मना देवेभ्यो अग्निर्हव्यं शमिता स्वदयतु ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पते । अव । सृज । रराण: । त्मना । देवेभ्य: । अग्नि: । हव्यम् । शमिता । स्वदयतु ॥२७.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(वनस्पते) हे वनस्पति ! (रराणः) इध्म प्रदान करता हुआ तु (अव सृज) इध्म का सर्जन कर, उसे उत्पन्न कर। (अग्निः) यज्ञियाग्नि (त्मना) निज स्वरूप द्वारा (देवेभ्यः) विद्वानों तथा यज्ञकर्ताओं के लिए (हव्यम्) अदनयोग्य अन्न को (स्वदयतु) स्वादुरूप में परिपक्व करे, (शमिता) इस प्रकार उन्हें शान्ति प्रदान करे ।
टिप्पणी -
[रराणः=रा दाने (अदादि:); रा+ कानच्। हव्यम्=हु अदने (जुहोत्यादिः)। कविता में वनस्पति को सम्बोधित किया है, परन्तु वैदिक दृष्टि से वनस्पतियां भी प्राणी हैं, स्थावर-प्राणी। वनस्पतियां भी जीवात्माओं के शरीररूप है, परन्तु हैं "अन्तःसंज्ञा और सुख-दुःख से विवर्जित।" यथा "अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखविवर्जिताः" (मनु०)। तथा "अस्थुर्वृक्षा ऊर्ध्वस्वप्नाः" (अथर्व० ६।४४।१) तथा "ओषधिषु प्रतितिष्ठा शरीर" (अथर्व० १८।२।७)। वृक्ष हैं 'अन्तःसंज्ञा:' परन्तु 'सुखदुःख से रहित' जैसे कि स्वाप्नौषध द्वारा मनुष्य को 'अन्तःसंज्ञ' कर शल्यत्रियाएंँ की जाती हैं।]