अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वैश्वदेवी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त
दैवीः॑ षडुर्वीरु॒रु नः॑ कृणोत॒ विश्वे॑ देवास इ॒ह मा॑दयध्वम्। मा नो॑ विददभि॒भा मो अश॑स्ति॒र्मा नो॑ विदद्वृजि॒ना द्वेष्या॒ या ॥
स्वर सहित पद पाठदैवी॑: । ष॒ट् । उ॒र्वी॒: । उ॒रु । न॒: । कृ॒णो॒त॒ । विश्वे॑ । दे॒वा॒स॒: । इह । मा॒द॒य॒ध्व॒म् । मा । न॒:। वि॒द॒त् ।अ॒भि॒ऽभा: । मो इति॑ । अश॑स्ति: । मा । न॒: । वि॒द॒त् । वृ॒जि॒ना । द्वेष्या॑ । या ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
दैवीः षडुर्वीरुरु नः कृणोत विश्वे देवास इह मादयध्वम्। मा नो विददभिभा मो अशस्तिर्मा नो विदद्वृजिना द्वेष्या या ॥
स्वर रहित पद पाठदैवी: । षट् । उर्वी: । उरु । न: । कृणोत । विश्वे । देवास: । इह । मादयध्वम् । मा । न:। विदत् ।अभिऽभा: । मो इति । अशस्ति: । मा । न: । विदत् । वृजिना । द्वेष्या । या ॥३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
हे (दैवी:) दिव्य (षट् ) छह ( उर्वी: ) विस्तृत दिशाओ ! (न:) हमारे लिए (उरु) विस्तृत प्रदेश (कृणोत) करो, और (विश्वेदेवाः) हे साम्राज्य के सब दिव्य अधिकारियो ! (इह) इस साम्राज्य में (मादयध्वम्), आनन्दित रहो । ( नः) हमें (अभिभा:) पराभव (मा विदत्) न प्राप्त हो, (मा) न (नः) हमें (अशस्तिः ) अप्रशंसा, ( निन्दा विदत् ) प्राप्त हो, ( मा ) और न (विदत्) प्राप्त हो (वृजिना) वर्जनीया पापिन शत्रुसेना ( या ) जोकि (द्वेष्या) द्वेष करनेवाले शत्रु की है ।
टिप्पणी -
[सैन्य प्रशिक्षण के लिए विस्तृत प्रदेश चाहिए, इसलिए सोम राजा ने साम्राज्य से विस्तृत प्रदेश की मांग की है। सैन्य प्रशिक्षण के रहते शत्रु सेना आक्रमण द्वारा न हमारा पराभव कर सकती है, न हमें पराभव-जन्य निन्दा प्राप्त होती और न शत्रुसेना हमारे राष्ट्र में निज पदार्पण के लिए साहस ही कर सकती है ।]