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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    दे॒वेभ्यो॒ अधि॑ जा॒तोऽसि॒ सोम॑स्यासि॒ सखा॑ हि॒तः। स प्रा॒णाय॑ व्या॒नाय॒ चक्षु॑षे मे अ॒स्मै मृ॑ड ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वेभ्य॑: । अधि॑ । जा॒त: । अ॒सि॒ । सोम॑स्य । अ॒सि॒ । सखा॑ । हि॒त: । स: । प्रा॒णाय॑ । वि॒ऽआ॒नाय॑ । चक्षु॑षे । मे॒ । अ॒स्मै । मृ॒ड॒ ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवेभ्यो अधि जातोऽसि सोमस्यासि सखा हितः। स प्राणाय व्यानाय चक्षुषे मे अस्मै मृड ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवेभ्य: । अधि । जात: । असि । सोमस्य । असि । सखा । हित: । स: । प्राणाय । विऽआनाय । चक्षुषे । मे । अस्मै । मृड ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 7

    भाषार्थ -
    (देवेभ्यः अधि) दिव्यशक्तियों से (जातः असि) हे कूठ-औषध ! तू पैदा हुआ है, (सोमस्य ) सोम- औषध का ( सखा असि) तू सखा है, ( हितः) रोगी का तू हित करनेवाला है । (सः) वह तू (मे) मेरे ( अस्मै) इस रोगी पुरुष के लिए तथा (प्राणाय, व्यानाय, चक्षुषे ) इसके प्राण, व्यान और चक्षु आदि इन्द्रियों के लिए (मृड) सुखदायक हो ।

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