अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
सूक्त - अथर्वा
देवता - अरातिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
उ॒त न॒ग्ना बोभु॑वती स्वप्न॒या स॑चसे॒ जन॑म्। अरा॑ते चि॒त्तं वीर्त्स॒न्त्याकू॑तिं॒ पुरु॑षस्य च ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । न॒ग्ना । बोभु॑वती । स्व॒प्न॒ऽया । स॒च॒से॒ । जन॑म् । अरा॑ते । चि॒त्तम् । वि॒ऽईर्त्स॑न्ती । आऽकू॑तिम् । पुरु॑षस्य । च॒ ॥७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नग्ना बोभुवती स्वप्नया सचसे जनम्। अराते चित्तं वीर्त्सन्त्याकूतिं पुरुषस्य च ॥
स्वर रहित पद पाठउत । नग्ना । बोभुवती । स्वप्नऽया । सचसे । जनम् । अराते । चित्तम् । विऽईर्त्सन्ती । आऽकूतिम् । पुरुषस्य । च ॥७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(उत) तथा (नग्ना बोभुवती) नग्न होती हुई, (स्वप्नया=स्वप्नेन) स्वप्न के साथ (जनम् ) जन को ( सचसे ) तू सम्बद्ध कर देती है; (अराते) हे अदानभावना ! तू (पुरुषस्य) पुरुष के (चित्तम् ) चित्त को ( च) और (आकूतिम्) संकल्प को (वीर्त्सन्ती ) वीरतापूर्वक अर्थात् हठात् उपक्षीण करती है।
टिप्पणी -
[अदानभावना के होते निर्धन, वस्त्रों से रहित होकर नग्न हो जाते हैं, मानो अदानभावना नग्न होकर इनमें प्रकट हुई है। ऐसे व्यक्तियों को स्वप्न भी निज निर्धनता के होते रहते हैं। निर्धनता के कारण इनके चित तथा संकल्प भी क्षीण हो जाते हैं, (तसु उपक्षये, दिवादि:)। अदानभावना की बीरता हठ में प्रकट होती है, वीरता, दहता, हठ।]