अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
यन्त्य॑स्य दे॒वा दे॒वहू॑तिं प्रि॒यो दे॒वानां॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयन्ति॑ । अ॒स्य॒ । दे॒वा: । दे॒वऽहू॑तिम् । प्रि॒य: । दे॒वाना॑म् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥॥१०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्त्यस्य देवा देवहूतिं प्रियो देवानां भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठयन्ति । अस्य । देवा: । देवऽहूतिम् । प्रिय: । देवानाम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥॥१०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अस्य) इस आह्वान करने वाले के (देवहूतिम्) दिव्य-आह्वान में, (देवाः) उस समय के देव (यन्ति) प्राप्त होते हैं, और वह (देवानाम्) उन देवों का (प्रियः) प्यारा (भवति) हो जाता है (यः) जो (एवम्) इस प्रकार की अहवनीय व्यवस्था को (वेद) जानता है।
टिप्पणी -
[यह आहवनीय व्यवस्था है, साथ के समझदार व्यक्तियों [देवों] को एकत्रित कर, निज पारस्परिक जीवनों को सुखी बनाने के लिये, आहवनीय व्यवस्था को स्थापित करना। यह आह्वानकर्ता उन आहूत देवों का प्रिय बन जाता है, और वे आहूत देव इसे आहवनीय व्यवस्था का मुखिया चुन लेते हैं, यह भावना मन्त्र में निहित है। यह भावना अगले मन्त्रों द्वारा अनुमित होती है। आहवनीय व्यवस्था की स्थिति से पहिले जिन व्यक्तियों ने गार्हपत्य जीवन को अपनाया और जाङ्गलिक जीवन को त्याग कर पति-पत्नी व्यवस्था को स्वीकार कर लिया, उन्हें मन्त्र में "देवाः" कहा है, क्योंकि ये व्यक्ति गार्हपत्य व्यवस्था के अनुसार अब दिव्यगुणों वाले और दिव्य जीवनों वाले हो गये हैं। यह आहवनीय "ग्रामसंस्था" का पूर्वरूप है। जो कि समय पाकर एक संगठित "ग्रामसभा" बन जाती है, और इस का अध्यक्ष "ग्रामणीः" कहलाता है। यथा "ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामप्यश्च ये" (अथर्व० ३।५।७)। इस "ग्रामसभा" के नियमों तथा आज्ञाओं को उद्घोषित करने के लिये एक कर्मचारी रख लिया जाता है, जिसे कि "ग्रामघोषी" कहा है (अथर्व० ५।२०।९)।