अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
यन्त्य॑स्य स॒भां सभ्यो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयन्ति॑ । अ॒स्य॒ । स॒भाम् । सभ्य॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१०.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्त्यस्य सभां सभ्यो भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठयन्ति । अस्य । सभाम् । सभ्य: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१०.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(यः) जो (एवम्) इस प्रकार (वेद) सभा-संस्था के महत्त्व को जानता है (अस्य) इसकी (सभाम्) सभा में [दक्षिणाग्नि संस्था के सदस्य] (यन्ति) जाते हैं, प्राप्त होते हैं, और वह सभा के महत्त्व जानने वाला (सभ्यः) सभासद् होकर सभा का सभापति हो जाता है।
टिप्पणी -
[यह सभा, लोकसभा अर्थात् असेम्बली है (अथर्व० ७ १३३।१) - सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने। येना संगच्छा उप मा स शिक्षाच्चारु वदानि पितरः संगतेषु ।। (सभा च समितिः च) सभा और समिति (मा) मुझ सभापति की (अवताम्) रक्षा करें (प्रजापतेः) प्रजाओं के पति अर्थात् राजा की (दुहितरौ) तुम दोनों [सभा, समिति] दुहिता के सदृश कामनाओं का दोहन करने वाली हो, (संविदाने) तुम दोनों सम्यक् ज्ञानी हो, परस्पर ऐकमत्य होकर कामनाओं का दोहन करो। (येन) तुम में से जिस किसी के साथ (संगच्छै) मैं [सभा समिति का पति] संग करूं। (सः) वह (मा) मुझे (उपशिक्षात्) मेरे समीप आकर परामर्श प्रदान करे। (पितरः) हे पिता के समान सभासदो ! (संगतेषु) तुम्हारे इन सम्मेलनों में (चारु) सुचारुवाणी (वदानि) मैं बोलू। [समिति का वर्णन मन्त्र (१०; ११) में होगा। यह समिति राजसभा है। "सभ्य सभां मे पाहि ये च सभ्याः सभासदः" (अथर्व० १९।५५।५), प्रजापति राजा कहता है कि "हे सभ्य ! अर्थात् सभापति ! तथा हे सभा में उपस्थित सभासदों ! तुम मिलकर मेरी सभा की रक्षा करो। यह सभापति सभा का संचालक है, जो कि प्रजापति द्वारा नियत किया जाता है। संगतेषु = सभा और समिति के संयुक्त अधिवेशनों को "संगत” कहा है]।