अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - याजुषी जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सा गार्ह॑पत्ये॒ न्यक्रामत्।
स्वर सहित पद पाठसा ।उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । गार्ह॑ऽपत्ये । नि । अ॒क्रा॒म॒त् ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सा गार्हपत्ये न्यक्रामत्।
स्वर रहित पद पाठसा ।उत् । अक्रामत् । सा । गार्हऽपत्ये । नि । अक्रामत् ॥१०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सा) वह विराट् (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई [उसने उत्क्रमण किया, वह समुन्नत हुई, उसने उन्नति की ओर पादविक्षेप किया], (सा) वह समुन्नत हुई-विराट् (गार्हपत्ये) गार्हपत्य व्यवस्था में (न्यक्रामत्) अवतीर्ण हुई।
टिप्पणी -
[उदक्रामत्= उत् + क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादि)। गार्हपत्य का अभिप्राय है, (१) घर का होना; (२) उस के पति अर्थात् स्वामी का होना; (३) पति सम्बन्धी पत्नी का होना। इस द्वारा यह सूचित हुआ है कि गार्हपत्य-व्यवस्था से पूर्व मनुष्य जाति में न तो गृहनिर्माण की व्यवस्था थी, गृह नहीं तो उस का अधिपति भी न था, और पति-पत्नी भाव की न व्यवस्था थी। लगभग यह अवस्था जाङ्गलिक थी, मनुष्य भी लगभग पशु-जीवन के सदृश जीवनचर्या करते थे। मन्त्रों में उदक्रामत् तथा न्यक्रामत् पद भूतकाल के हैं, अतः तदनुसार अर्थ दर्शाए हैं, वस्तुतः अभिप्राय सार्वत्रिक सिद्धान्तरूप है। क्योंकि वेदों में लुङ, लङ्, लिट् वर्तमान में भी प्रयुक्त होते हैं। छन्दसि लुङ् लङ लिटः (अष्टा० ३२।४।६)]।