अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
य॒ज्ञर्तो॑ दक्षि॒णीयो॒ वास॑तेयो भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञऽऋ॑त: । द॒क्षि॒णीय॑: । वास॑तेय: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञर्तो दक्षिणीयो वासतेयो भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञऽऋत: । दक्षिणीय: । वासतेय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(यः) जो (एवम्) इस प्रकार (दक्षिणीयः) दक्षिणाग्नि संस्था के महत्व को (वेद) जानता है वह (यजतः) इस संस्थारूपी यज्ञ में जाने योग्य हो जाता है, और (वासतेयः) वसती का शुभकारी (भवति) होता है।
टिप्पणी -
[यह दक्षिणाग्नि संस्था है। दक्षिणाग्नि संस्था को यज्ञ कहा है। इस देवकोटि के ग्रामणी ही होते तथा इनमें परस्पर संगम होता है, समग्र जिला के निवासियों के हितकर कार्यों के लिये।] [आगामी मन्त्रों में उक्त तीन संस्थानों का वर्णन हुआ है]।