अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - याजुषी जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सा द॑क्षिणा॒ग्नौ न्यक्रामत्।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । द॒क्षि॒ण॒ऽअ॒ग्नौ । नि । अ॒क्रा॒म॒त् ॥१०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सा दक्षिणाग्नौ न्यक्रामत्।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । दक्षिणऽअग्नौ । नि । अक्रामत् ॥१०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(सा) वह आहवनीय अवस्था की विराट् (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई (सा) वह (दक्षिणाग्नौ) दक्षिणाग्नि में (न्यक्रामत्) अवतीर्ण हुई।
टिप्पणी -
[उदक्रामत्= उत् + क्रामत् (क्रमु पादविक्षेपे)। न्यक्रामत्= नि (नीचे की ओर) क्रामत् (क्रमु पादविदक्षेपे)। दक्षिणाग्नि= दक्षिण (Able, skilful, competent आप्टे) + अग्निः= अग्रणीभवति (निरुक्त ७।४।१४)। अतः दक्षिणाग्नि=योग्य होशियार नेता। ग्रामणियों के योग्य अग्रणी। इन की संस्था को दक्षिणाग्नि संस्था कहा है। अर्थात ग्रामणियों के योग्य व्यक्तियों के परस्पर मेल द्वारा रचितसंस्था। यह जिला-संस्था का रूप है]।