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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 64

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 6
    सूक्त - विश्वमनाः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६४

    तं वो॒ वाजा॑नां॒ पति॒महू॑महि श्रव॒स्यवः॑। अप्रा॑युभिर्य॒ज्ञेभि॑र्वावृ॒धेन्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम्‌ । व॒: । वाजा॑नाम् । पति॑म् । अहू॑महि । अ॒व॒स्यव॑: ॥ अप्रा॑युऽभि: । य॒ज्ञेभि॑: । व॒वृ॒धेन्य॑म् ॥६४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं वो वाजानां पतिमहूमहि श्रवस्यवः। अप्रायुभिर्यज्ञेभिर्वावृधेन्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्‌ । व: । वाजानाम् । पतिम् । अहूमहि । अवस्यव: ॥ अप्रायुऽभि: । यज्ञेभि: । ववृधेन्यम् ॥६४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 6

    भाषार्थ -
    হে উপাসকগণ! (বঃ শ্রবস্যবঃ) তোমাদের জন্য আনন্দরসরূপী অন্ন কামনাকারী আমরা গুরুরা , (বাজানাম্) বিভূতিবল এবং শক্তি-সমূহের (পতিম্) পতি, তথা (অপ্রায়ুভিঃ) স্থির চিত্তবৃত্তিসম্পন্নদের দ্বারা কৃত (যজ্ঞেভিঃ) উপাসনা যজ্ঞ দ্বারা (বাবৃধেন্যম্) অত্যন্ত বর্ধিতকারী পরমেশ্বরকে, (অহূমহি) তোমাদের দিকে নিয়ে এসেছি।

    - [শ্রবঃ=অন্ন (নিঘং০ ২.৭)। অপ্রায়ুভিঃ=অ+প্র+অয়্ (গতৌ) প্রায়ুঃ=গতিশীল, অস্থির। অপ্রায়ুঃ=গতিরহিত, স্থির।]

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