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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृत् ब्राह्मी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    स प्र॑थ॒मो बृह॒स्पति॑श्चिकि॒त्वाँस्तस्मा॒ऽइन्द्रा॑य सु॒तमाजु॑होत॒ स्वाहा॑। तृ॒म्पन्तु॒ होत्रा॒ मध्वो॒ याः स्वि॑ष्टा॒ याः सुप्री॑ताः॒ सुहु॑ता॒ यत्स्वाहाया॑ड॒ग्नीत्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। प्र॒थ॒मः। बृह॒स्पतिः॑। चि॒कि॒त्वान्। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। सु॒तम्। आ। जु॒हो॒त॒। स्वाहा॑। तृ॒म्पन्तु॑। होत्राः॑। मध्वः॑। याः। स्वि॑ष्टा॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टाः। याः। सुप्री॑ता॒ इति॒ सुऽप्री॑ताः। सुहु॑ता॒ इति॑ सुऽहु॑ताः। यत्। स्वाहा॑। अया॑ट्। अ॒ग्नीत् ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्रथमो बृहस्पतिश्चिकित्वाँस्तस्माऽइन्द्राय सुतमा जुहोत स्वाहा । तृम्पन्तु होत्रा मध्वो याः स्विष्टा याः सुप्रीताः सुहुता यत्स्वाहायाडग्नीत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः। प्रथमः। बृहस्पतिः। चिकित्वान्। तस्मै। इन्द्राय। सुतम्। आ। जुहोत। स्वाहा। तृम्पन्तु। होत्राः। मध्वः। याः। स्विष्टा इति सुऽइष्टाः। याः। सुप्रीता इति सुऽप्रीताः। सुहुता इति सुऽहुताः। यत्। स्वाहा। अयाट्। अग्नीत्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    हे शिष्यो! तुम लोग जैसे वह पूर्व मन्त्र से प्रतिपादित (प्रथमः) आदि मित्र (चिकित्वान्) विज्ञानवान् (बृहस्पतिः) सब विद्यायुक्त वाणी का पालने वाला जिस ऐश्वर्य्य के लिये प्रयत्न करता है, वैसे (तस्मै) उस (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी और (सुतम्) निष्पादित श्रेष्ठ व्यवहार का (आजुहोत) अच्छे प्रकार ग्रहण करो और जैसे (यत्) जो (होत्राः) योग स्वीकार करने के योग्य वा (याः) जो (मध्वः) माधुर्य्यादिगुणयुक्त (स्विष्टाः) जिनसे कि अच्छे-अच्छे इष्ट काम बनते हैं (याः) वा जो ऐसी हैं कि (सुहुताः) जिनसे अच्छे प्रकार हवन आदि कर्म्म सिद्ध होते हैं (सुप्रीताः) और अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती हैं, वे विद्वान् स्त्रीजन वा (अग्नीत्) कोई अच्छी प्रेरणा को प्राप्त हुआ विद्वान् योगी (स्वाहा) सत्यवाणी से (अयाट्) सभों को सत्कृत करता और तृप्त रहता है। आप लोग उन स्त्रियों और उस योगी के समान (तृम्पन्तु) तृप्त हूजिये॥१५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे योगी विद्वान् और योगिनी विद्वानों की स्त्रीजन परमैश्वर्य्य के लिये यत्न करें और जैसे सेवक अपने स्वामी का सेवन करता है, वैसे अन्य पुरुषों को भी उचित है कि उन-उन कामों में प्रवृत होकर अपनी अभीष्ट सिद्धि को पहुँचे॥१५॥

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