यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 7
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - वायुर्देवता
छन्दः - निचृत् जगती,
स्वरः - निषादः
11
आ वा॑यो भूष शुचिपा॒ऽउप॑ नः स॒हस्रं॑ ते नि॒युतो॑ विश्ववार। उपो॑ ते॒ऽअन्धो॒ मद्य॑मयामि॒ यस्य॑ देव दधि॒षे पू॑र्व॒पेयं॑ वा॒यवे॑ त्वा॥७॥
स्वर सहित पद पाठआ। वा॒यो॒ऽइति॑ वायो। भू॒ष॒। शुचि॒पा॒ इति॑ शुचिऽपाः। उप॑ नः॒। स॒हस्र॑म्। ते॒। नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। वि॒श्व॒वा॒रेति॑ विश्वऽवार। उपो॒ऽइत्यु॑पो॑। ते॒। अन्धः॑। मद्य॑म्। अ॒या॒मि॒। यस्य॑। दे॒व॒। द॒धि॒षे। पू॒र्वपेय॒मिति॑ पूर्वऽपेय॑म्। वा॒यवे॑। त्वा॒ ॥७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यायो भूष शुचिपा उप नः सहस्रन्ते नियुतो विश्ववार । उपो तेऽअन्धो मद्यमयामि यस्य देव दधिषे पूर्वपेयँ वायवे त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। वायोऽइति वायो। भूष। शुचिपा इति शुचिऽपाः। उप नः। सहस्रम्। ते। नियुत इति निऽयुतः। विश्ववारेति विश्वऽवार। उपोऽइत्युपो। ते। अन्धः। मद्यम्। अयामि। यस्य। देव। दधिषे। पूर्वपेयमिति पूर्वऽपेयम्। वायवे। त्वा॥७॥
विषय - फिर योगी का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ -
हे (शुचिपाः) अत्यन्त शुद्धता को पालने और (वायो) पवन के तुल्य योगक्रियाओं में प्रवृत्त होने वाले योगी! तू (सहस्रम्) हजारों (नियुतः) निश्चित शमादिक गुणों को (आभूष) सब प्रकार सुभूषित कर। हे (विश्ववार) समस्त गुणों के स्वीकार करने वाले! जो (ते) तेरा (मद्यम्) अच्छी तृप्ति देने वाला (अन्धः) अन्न है, उसको (उपो) तेरे समीप (अयामि) पहुंचाता हूं। हे (देव) योगबल से आत्मा को प्रकाश करने वाले! (यस्य) जिस तेरा (पूर्वपेयम्) श्रेष्ठ योगियों की रक्षा करने के योग्य योगबल है, जिसको तू (दधिषे) धारण कर रहा है, (वायवे) उस योग के जानने के लिये (त्वा) तुझे स्वीकार करता हूं॥७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो योगी प्राण के तुल्य सब को भूषित करता, ईश्वर के तुल्य अच्छे-अच्छे गुणों में व्याप्त होता है और अन्न वा जल के सदृश सुख देता है, वही योग में समर्थ होता है॥७॥
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