यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 25
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - वैश्वनरो देवता
छन्दः - याजुषी अनुष्टुप्,विराट आर्षी बृहती
स्वरः - गान्धारः
7
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि ध्रु॒वोऽसि ध्रु॒वक्षि॑तिर्ध्रु॒वाणां॑ ध्रु॒वत॒मोऽच्यु॑तानामच्युत॒क्षित्त॑मऽए॒ष ते॒ योनि॑र्वैश्वान॒राय॑ त्वा। ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॒ मन॑सा वा॒चा सोम॒मव॑नयामि। अथा॑ न॒ऽइन्द्र॒ऽइद्विशो॑ऽसप॒त्नाः सम॑नस॒स्कर॑त्॥२५॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। ध्रु॒वक्षि॑ति॒रिति॑ ध्रु॒वऽक्षि॑तिः। ध्रु॒वाणा॑म्। ध्रु॒वत॑म॒ इति॑ ध्रु॒वऽतमः॑। अच्यु॑तानाम्। अ॒च्युत॒क्षित्त॑म॒ इत्य॑च्युत॒क्षित्ऽत॑मः। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। वै॒श्वा॒न॒राय॑। त्वा॒। ध्रु॒वम्। ध्रु॒वेण॑। मन॑सा। वा॒चा। सोम॑म्। अव॑। न॒या॒मि॒। अथ॑। नः॒। इन्द्रः॑। इत्। विशः॑। अ॒स॒प॒त्नाः। सम॑नस॒ इति॑ सऽम॑नसः। कर॑त् ॥२५॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोसि धु्रवोसि धु्रवक्षितिर्ध्रुवाणान्धु्रवतमोच्युतानामच्युतक्षितमऽएष ते योनिर्वैश्वानराय त्वा । धु्रवन्धु्रवेण मनसा वाचा सोममवनयामि । अथा नऽइन्द्रऽइद्विशो सपत्नाः समनसस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। ध्रुवः। असि। ध्रुवक्षितिरिति ध्रुवऽक्षितिः। ध्रुवाणाम्। ध्रुवतम इति ध्रुवऽतमः। अच्युतानाम्। अच्युतक्षित्तम इत्यच्युतक्षित्ऽतमः। एषः। ते। योनिः। वैश्वानराय। त्वा। ध्रुवम्। ध्रुवेण। मनसा। वाचा। सोमम्। अव। नयामि। अथ। नः। इन्द्रः। इत्। विशः। असपत्नाः। समनस इति सऽमनसः। करत्॥२५॥
विषय - अब अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥
पदार्थ -
हे परमेश्वर! आप (उपयामगृहीतः) शास्त्रप्राप्त नियमों से स्वीकार किये जाते (असि) हैं, ऐसे ही (ध्रुवः) स्थिर (असि) हैं कि (ध्रुवक्षितिः) जिन आप में भूमि स्थिर हो रही है और (ध्रुवाणाम्) स्थिर आकाश आदि पदार्थों में (ध्रुवतमाः) अत्यन्त स्थिर (असि) हैं तथा (अच्युतानाम्) जगत् का अविनाशी कारण और अनादि सिद्ध जीवों में (अच्युतक्षित्तमः) अतिशय करके अविनाशीपन बसाने वाले हैं। (एषः) यह सत्य के मार्ग का प्रकाश (ते) आप के (योनिः) निवास-स्थान के समान है। (वैश्वानराय) समस्त मनुष्यों को सत्य मार्ग में प्राप्त कराने वाले वा इस राज्यप्रकाश के लिये (ध्रुवेण) दृढ़ (मनसा) मन और (वाचा) वाणी से (सोमम्) समस्त जगत् के उत्पन्न कराने वाले (त्वा) आप को (ध्रुवम्) निश्चयपूर्वक जैसे हो वैसे (अवनयामि) स्वीकार करता हूं। (अथ) इसके अनन्तर (इन्द्रः) सब दुःख के विनाश करने वाले आप (नः) हमारे (विशः) प्रजाजनों को (असपत्नाः) शत्रुओं से रहित और (समनसः) एक मन अर्थात् एक दूसरे के चाहने वाले (इत्) ही (करत्) कीजिये॥२५॥
भावार्थ - जो नित्य पदार्थों में नित्य और स्थिरों में भी स्थिर परमेश्वर है, उस समस्त जगत् के उत्पन्न करने वाले परमेश्वर की प्राप्ति और योगाभ्यास के अनुष्ठान से ही ठीक-ठीक ज्ञान हो सकता है, अन्यथा नहीं॥२५॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal