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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 22
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - विराट ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा बृ॒हद्व॑ते॒ वय॑स्वतऽउक्था॒व्यं गृह्णामि। यत्त॑ऽइन्द्र बृ॒हद्वय॒स्तस्मै॑ त्वा॒ विष्ण॑वे त्वै॒ष ते॒ योनि॑रु॒क्थेभ्य॑स्त्वा दे॒वेभ्य॑स्त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णामि॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृहीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। बृहद्व॑त॒ इति॑ बृहत्ऽव॑ते। वय॑स्वते। उ॒क्थाव्य᳖मित्यु॑क्थऽअ॒व्य᳖म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। यत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। बृ॒हत्। वयः॑। तस्मै॑। त्वा॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। उ॒क्थेभ्यः॑। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा बृहद्वते वयस्वतऽउक्थाव्यङ्गृह्णामि । यत्तऽइन्द्र बृहद्वयस्तस्मै त्वा विष्णवे त्वैष ते योनिरुक्थेभ्यस्त्वा देवेभ्यस्त्वा देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामि मित्रावरुणाभ्यान्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। बृहद्वत इति बृहत्ऽवते। वयस्वते। उक्थाव्यमित्युक्थऽअव्यम्। गृह्णामि। यत्। ते। इन्द्र। बृहत्। वयः। तस्मै। त्वा। विष्णवे। त्वा। एषः। ते। योनिः। उक्थेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) सेनापते! तू (उपयामगृहीतः) अच्छे नियमों से विद्या को पढ़ने वाला (असि) है, इस हेतु से (बृहद्वते) जिसके अच्छे बड़े-बड़े कर्म्म हैं (वयस्वते) और जिसकी दीर्घ आयु है, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले सभापति के लिये (उक्थाव्यम्) प्रशंसनीय स्तोत्र वा विशेष शस्त्रविद्या वाले (त्वा) तेरा (गृह्णामि) ग्रहण जैसे मैं करता हूं, वैसे (यत्) जो (ते) तेरा (बृहत्) अत्यन्त (वयः) जीवन है, (तस्मै) उसके पालन करने के अर्थ और (विष्णवे) ईश्वरज्ञान वा वेदज्ञान के लिये (त्वा) तुझे (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं और (एषः) यह सेना का अधिकार (ते) तेरा (योनिः) स्थित होने के लिये स्थान है। हे सेनापते! (उक्थेभ्यः) प्रशंसा योग्य वेदोक्त कर्मों के लिये (त्वा) तुझे (देवेभ्यः) और विद्वानों वा दिव्य गुणों के लिये (देवाव्यम्) उनके पालन करने वाले (त्वा) तुझ को (यज्ञस्य) राज्यपालनादि व्यवहार के (आयुषे) बढ़ाने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥२२॥

    भावार्थ - सब विद्याओं के जानने वाले विद्वान् को योग्य है कि राज्यव्यवहार में सेना के वीर पुरुषों की रक्षा करने के लिये अच्छी शिक्षायुक्त, शस्त्र और अस्त्र विद्या में परम प्रवीण, यज्ञ के अनुष्ठान करने वाले वीर पुरुष को सेनापति के काम में युक्त करें और सभापति तथा सेनापति को चाहिये कि परस्पर सम्मति कर के राज्य और यज्ञ को बढ़ावें॥२२॥

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