Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - प्राणो देवता छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - पञ्चमः
    8

    वा॒चस्पत॑ये पवस्व॒ वृष्णो॑ऽअ॒ꣳशुभ्यां॒ गभ॑स्तिपूतः। दे॒वो दे॒वेभ्यः॑ पवस्व॒ येषां॑ भा॒गोऽसि॑॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒चः। पत॑ये। प॒व॒स्व॒। वृष्णः॑। अ॒ꣳशुभ्या॒मित्य॒ꣳशुऽभ्या॑म्। गभ॑स्तिपूत॒ इति॒ गभ॑स्तिऽपूतः॒। दे॒वः। दे॒वेभ्यः॑। प॒व॒स्व॒। येषा॑म्। भा॒गः। असि॑ ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाचस्पतये पवव वृष्णो अँशुभ्याङ्गभस्तिपूतः । देवो देवेभ्यः पवस्व येषां भागो सि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाचः। पतये। पवस्व। वृष्णः। अꣳशुभ्यामित्यꣳशुऽभ्याम्। गभस्तिपूत इति गभस्तिऽपूतः। देवः। देवेभ्यः। पवस्व। येषाम्। भागः। असि॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    हे मनुष्य तू (वाचः) वाणी के (पतये) पालन हारे ईश्वर के लिये (पवस्व) पवित्र हो, (वृष्णः) बलवान् पुरुष के (अंशुभ्याम्) भुजाओं के समान बाहर-भीतर वा व्यवहार होने के लिये जैसे (गभस्तिपूतः) सूर्य्य की किरणों से पदार्थ पवित्र जैसे होते हैं, वैसे शास्त्रों से (देवः) दिव्य-गुण युक्त विद्वान् होकर (येषाम्) जिन विद्वानों की (भागः) सेवन करने के योग्य है, उन (देवेभ्यः) देवों के लिये (पवस्व) पवित्र हो॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब जीवों को योग्य है कि वेदों की रक्षा करने वाले नित्य पवित्र परमात्मा को जान और विद्वानों के संग से विद्यादि उत्तम गुणों में निष्णात होकर सत्यवाणी को बोलने वाले हों॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top