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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - मघवा देवता छन्दः - आर्षी उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒न्तर्य॑च्छ मघवन् पा॒हि सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य राय॒ऽएषो॑ यजस्व॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒न्तः। य॒च्छ॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। पा॒हि॒। सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य। रायः॑। आ। इषः॑। य॒ज॒स्व॒ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतो स्यन्तर्यच्छ मघवन्पाहि सोमम् । उरुष्य राय एषो यजस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अन्तः। यच्छ। मघवन्निति मघऽवन्। पाहि। सोमम्। उरुष्य। रायः। आ। इषः। यजस्व॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    हे योग चाहनेवाले! जिससे तू (उपयामगृहीतः) योग में प्रवेश करने वाले नियमों से ग्रहण किये हुए के समान (असि) है, इस कारण (अन्तः) भीतरले जो प्राणादि, पवन, मन और इन्द्रियां हैं, इनको (यच्छ) नियम में रख। हे (मघवन्) परमपूजित धनी के समान! तू (सोमम्) योगविद्यासिद्ध ऐश्वर्य्य को (पाहि) रक्षा कर और जो अविद्यादि क्लेश हैं, उनको (उरुष्य) अत्यन्त योगविद्या के बल से नष्ट कर, जिससे (रायः) ऋद्धि और (इषः) इच्छासिद्धियों को (आयजस्व) अच्छे प्रकार प्राप्त हो॥४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। योग जिज्ञासु पुरुष को चाहिये कि यम, नियम आदि योग के अङ्गों से चित्त आदि अन्तःकरण की वृत्तियों को रोक और अविद्यादि दोषों का निवारण करके संयम से ऋद्धि सिद्धियों को सिद्ध करें॥४॥

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