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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 66
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः छन्दः - विराड्ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आकू॑तिम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॒ मनो॑ मे॒धाम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॑ चि॒त्तं विज्ञा॑तम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॑ वा॒चो विधृ॑तिम॒ग्निं प्र॒युज॒ꣳ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ मन॑वे॒ स्वाहा॒ऽग्नये॑ वैश्वान॒राय॒ स्वाहा॑॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आकू॑तिमित्याऽकू॑तिम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। मनः॑। मे॒धाम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। चि॒त्तम्। विज्ञा॑त॒मिति॒ विऽज्ञा॑तम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। वा॒चः। विधृ॑ति॒मिति॒ विऽधृ॑तिम्। अ॒ग्निम्। प्र॒युज॒मिति॑ प्र॒ऽयुज॑म्। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। मन॑वे। स्वाहा॑। अ॒ग्नये। वै॒श्वा॒न॒राय॑। स्वाहा॑ ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आकूतिमग्निम्प्रयुजँ स्वाहा मनो मेधामग्निम्प्रयुजँ स्वाहा चित्तँविज्ञातमग्निम्प्रयुजँ स्वाहा वाचो विधृतिमग्निम्प्रयुजँ स्वाहा प्रजापतये मनवे स्वाहाग्नये वैश्वानराय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आकूतिमित्याऽकूतिम्। अग्निम्। प्रयुजमिति प्रऽयुजम्। स्वाहा। मनः। मेधाम्। अग्निम्। प्रयुजमिति प्रऽयुजम्। स्वाहा। चित्तम्। विज्ञातमिति विऽज्ञातम्। अग्निम्। प्रयुजमिति प्रऽयुजम्। स्वाहा। वाचः। विधृतिमिति विऽधृतिम्। अग्निम्। प्रयुजमिति प्रऽयुजम्। स्वाहा। प्रजापतय इति प्रजाऽपतये। मनवे। स्वाहा। अग्नये। वैश्वानराय। स्वाहा॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 66
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    अन्वयः - हे स्त्रीपुरुषाः! भवन्तो वेदस्थैर्गायत्र्यादिभिश्छन्दोभिः स्वाहा आकूतिं प्रयुजमग्निं स्वाहा मनो मेधां प्रयुजमग्निं स्वाहा चित्तं विज्ञातं प्रयुजमग्निं स्वाहा वाचो विधृतिं प्रयुजमग्निं मनवे प्रजापतये स्वाहाऽग्नये वैश्वानराय स्वाहा च प्रापय्य सततमाछृन्दन्तु॥६६॥

    पदार्थः -
    (आकूतिम्) उत्साहकारिकां क्रियाम् (अग्निम्) प्रसिद्धं पावकम् (प्रयुजम्) यः सर्वान् युनक्ति तम् (स्वाहा) सत्यया क्रियया (मनः) इच्छासाधनम् (मेधाम्) प्रज्ञाम् (अग्निम्) विद्युतम् (प्रयुजम्) (स्वाहा) सत्यया वाचा (चित्तम्) चेतति येन तत् (विज्ञातम्) (अग्निम्) अग्निमिव भास्वरम् (प्रयुजम्) व्यवहारेषु प्रयुक्तम् (स्वाहा) सत्येन व्यवहारेण (वाचः) वाण्याः (विधृतिम्) विविधं धारणम् (अग्निम्) योगाभ्यासजनितां विद्युतम् (प्रयुजम्) संप्रयुक्तम् (स्वाहा) क्रियायोगरीत्या (प्रजापतये) प्रजास्वामिने (मनवे) मननशीलाय (स्वाहा) सत्यां वाणीम् (अग्नये) विज्ञानस्वरूपाय (वैश्वानराय) विश्वेषु नरेषु राजमानाय जगदीश्वराय (स्वाहा) धर्म्या क्रियाम्। [अयं मन्त्रः शत॰६.६.१.१५-२० व्याख्यातः]॥६६॥

    भावार्थः - अत्राऽऽछृन्दन्त्विति पदं पूर्वमन्त्रादनुवर्त्तते। मनुष्याः पुरुषार्थेन वेदादिशास्त्राण्यधीत्योत्साहा-दीनुन्नीय व्यवहारपरमार्थक्रियाप्रयोगेणाभ्युदयिकनिःश्रेयसे समाप्नुवन्तु॥६६॥

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