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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
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    रा॒तिꣳ सत्प॑तिं म॒हे स॑वि॒तार॒मुप॑ ह्वये। आ॒स॒वं दे॒ववी॑तये॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रा॒तिम्। सत्प॑ति॒मिति॒। सत्ऽप॑तिम्। म॒हे। स॒वि॒तार॑म्। उप॑। ह्वये॒। आ॒स॒वमित्या॑ऽस॒वम्। दे॒ववी॑तय॒ऽइति॑ दे॒ववी॑तये ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रातिँ सत्पतिम्महे सवितारमुपह्वये । आसवन्देववीतये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रातिम्। सत्पतिमिति। सत्ऽपतिम्। महे। सवितारम्। उप। ह्वये। आसवमित्याऽसवम्। देववीतयऽइति देववीतये॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 13
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    अन्वयः - हे मनुष्याः! यथाऽहं महे देववीतये रातिमासवं सत्पतिं सवितारमुपह्वये तथा यूथमप्येनं प्रशंसत॥१३॥

    पदार्थः -
    (रातिम्) दाताराम् (सत्पतिम्) सतां जीवानां पदार्थानां वा पालकम् (महे) महत्यै (सवितारम्) सकलजगदुत्पादकम् (उप) (ह्वये) उपस्तुयाम् (आसवम्) समन्तादैश्वर्ययुक्तम् (देववीतये) दिव्यानां गुणानां विदुषां वा प्राप्तये॥१३॥

    भावार्थः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि मनुष्या धर्मार्थकामसिद्धिं कामयेरँस्तर्हि परमात्मानमेवोपास्य तदाऽऽज्ञायां वर्त्तेरन्॥१३॥

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