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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 17
    सूक्त - देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा छन्दः - दैवी पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    व्याप॒ पूरु॑षः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्याप॒ । पूरु॑ष: ॥१३१.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्याप पूरुषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    व्याप । पूरुष: ॥१३१.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 17

    पदार्थ -
    (अत्यर्धर्च) हे अत्यन्त बढ़ी हुई स्तुतिवाले ! (पूरुषः) इस पुरुष ने (अदूहमित्याम्) अनष्ट ज्ञान के बीच (परस्वतः) पालन सामर्थ्यवाले [मनुष्य] के (पूषकम्) बढ़ती करनेवाले व्यवहार को (व्याप) फैलाया है ॥१७-१९॥

    भावार्थ - मनुष्य विद्या आदि की प्राप्ति से संसार का उपकार करके अपनी कीर्ति फैलावे, जैसे लोहार धौंकनी की खालों को वायु से फुलाकर फैलाता है ॥१७-२०॥

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