अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 8
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
आय॑ व॒नेन॑ती॒ जनी॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआऽअय॑ । व॒नेन॑ती॒ । जनी॑ ॥१३१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
आय वनेनती जनी ॥
स्वर रहित पद पाठआऽअय । वनेनती । जनी ॥१३१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 8
विषय - ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
(वनेनती) उपकार में झुकनेवाली (जनी) माता होकर (आय) तू आ ॥८॥
भावार्थ - सब मनुष्य और स्त्रियाँ सदा उपकार करके क्लेशों से बचें और परस्पर प्रीति से रहें ॥६-११॥
टिप्पणी -
८−(आय) अय गतौ। आगच्छ (वनेनती) वन उपकारे-अच्। पातेर्डतिः। उ० ४।७। णम प्रह्वत्वे शब्दे च-डति, ङीप्। उपकारे नम्रा (जनी) जन जनने-इन्, ङीप् जनयित्री। माता सती त्वम् ॥