अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 19
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अत्य॑र्ध॒र्च प॑र॒स्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअत्य॑र्ध॒र्च । प॑रस्व॒त॑: ॥१३१.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्यर्धर्च परस्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठअत्यर्धर्च । परस्वत: ॥१३१.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 19
विषय - ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
(अत्यर्धर्च) हे अत्यन्त बढ़ी हुई स्तुतिवाले ! (पूरुषः) इस पुरुष ने (अदूहमित्याम्) अनष्ट ज्ञान के बीच (परस्वतः) पालन सामर्थ्यवाले [मनुष्य] के (पूषकम्) बढ़ती करनेवाले व्यवहार को (व्याप) फैलाया है ॥१७-१९॥
भावार्थ - मनुष्य विद्या आदि की प्राप्ति से संसार का उपकार करके अपनी कीर्ति फैलावे, जैसे लोहार धौंकनी की खालों को वायु से फुलाकर फैलाता है ॥१७-२०॥
टिप्पणी -
१९−(अत्यर्धर्च) ऋधु वृद्धौ-घञ्, ऋच स्तुतौ क्विप्। ऋक्पूरब्धूः०। पा० ।४।७४। समासान्तस्य अप्रत्ययः। हे अतिशयेन प्रवृद्धस्तुतियुक्त (परस्वतः) पॄ पालनपूरणयोः-असुन्, मतुप्। पालनसामर्थ्ययुक्तस्य मनुष्यस्य ॥