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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 70

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 11
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०

    इन्द्रं॑ व॒यं म॑हाध॒न इन्द्र॒मर्भे॑ हवामहे। युजं॑ वृ॒त्रेषु॑ व॒ज्रिण॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । व॒यम् । म॒हा॒ऽध॒ने । इन्द्र॑म् । अर्भे॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ युज॑म् । वृ॒त्रेषु॑ । व॒ज्रि॒ण॑म् ॥७०.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे। युजं वृत्रेषु वज्रिणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । वयम् । महाऽधने । इन्द्रम् । अर्भे । हवामहे ॥ युजम् । वृत्रेषु । वज्रिणम् ॥७०.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    (वयम्) हम (अर्भे) चलते हुए (महाधने) बहुत धन प्राप्त करानेवाले संग्राम में [अथवा बहुत धन में] (युजम्) सहायकारी और (वृत्रेषु) रोकनेवाले शत्रुओं पर (वज्रिणम्) वज्रधारी (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] को, (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] को (हवामहे) बुलाते हैं ॥११॥

    भावार्थ - युद्धों में तथा बहुत धन में वीर पुरुष−“हे इन्द्र जगदीश्वर ! हे इन्द्र जगदीश्वर”− ऐसा स्मरण करके अपना बल बढ़ावें और प्रयत्न करके शत्रुओं को हटावें ॥११॥

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