अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । हि । अ॒स्य॒ । सू॒नृता॑ । वि॒ऽर॒प्शी । गोऽम॑ती । म॒ही ॥ प॒क्वा । शाखा॑ । न । दा॒शुषे॑ ॥७१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । हि । अस्य । सूनृता । विऽरप्शी । गोऽमती । मही ॥ पक्वा । शाखा । न । दाशुषे ॥७१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
विषय - मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(अस्य) उस [मनुष्य] की (सूनृता) अन्नवाली क्रिया (एव) निश्चय करके (हि) ही (विरप्शी) स्पष्ट वाणीवाली, (गोमती) श्रेष्ठ दृष्टिवाली, (मही) सत्कारयोग्य (पक्वा) परिपक्व [फूल-फूल वाली] (शाखा न) शाखा के समान (दाशुषे) आत्मदानी पुरुष के लिये [होवे] ॥४॥
भावार्थ - विज्ञानी, ऐश्वर्यवान् दूरदर्शी सत्यवादी पुरुष ही प्रजारक्षक होता है ॥३, ४॥
टिप्पणी -
म० ४-६ आचुके हैं अ० २०।६०।४-६ ॥ ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६०।४-६ ॥