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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्न्यादयः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    नव॑ प्रा॒णान्न॒वभिः॒ सं मि॑मीते दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय। हरि॑ते॒ त्रीणि॑ रज॒ते त्रीण्यय॑सि॒ त्रीणि॒ तप॒सावि॑ष्ठितानि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नव॑ । प्रा॒णान् । न॒वऽभि॑: । सम् । मि॒मी॒ते॒ । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय । हरि॑ते । त्रीणि॑ । र॒ज॒ते॒ । त्रीणि॑ । अय॑सि ।त्रीणि॑ । तप॑सा । आऽवि॑स्थितानि ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नव प्राणान्नवभिः सं मिमीते दीर्घायुत्वाय शतशारदाय। हरिते त्रीणि रजते त्रीण्ययसि त्रीणि तपसाविष्ठितानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नव । प्राणान् । नवऽभि: । सम् । मिमीते । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय । हरिते । त्रीणि । रजते । त्रीणि । अयसि ।त्रीणि । तपसा । आऽविस्थितानि ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    वह [परमेश्वर] (नव) नौ (प्राणान्) जीवनशक्तियों को (नवभिः) नौ [इन्द्रियों] के साथ (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन के लिये (सं मिमीते) यथावत् मिलाता है। [उसी करके] (हरिते) दरिद्रता हरनेवाले पुरुषार्थ में (त्रीणि) तीनों, (रजते) प्रिय होनेवाले प्रबन्ध [वा रूप्य] में (त्रीणि) तीनों, और (अयसि) प्राप्त योग्य कर्म [वा सुवर्ण] में (त्रीणि) तीनों [सुख] (तपसा) सामर्थ्य से (आविष्ठितानि) स्थित किये गये हैं ॥१॥

    भावार्थ - जिस परमात्मा ने नवद्वारपुर शरीर में दोनों कानों, दोनों नेत्रों, दोनों नथनों, मुख, पायु और उपस्थ, नव इन्द्रियों में नव शक्तियाँ रक्खी हैं, उसी जगदीश्वर ने बताया है कि मनुष्य उत्तम पुरुषार्थ, उत्तम प्रबन्ध और उत्तम कर्म से चाँदी सोना एकत्र करके तीन सुख अर्थात् अन्न, मनुष्य और पशुओं को बढ़ावे−मन्त्र ३ देखो ॥१॥

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