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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 14
    सूक्त - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त

    ए॒तास्ते॑ अग्ने स॒मिधः॑ पिशाच॒जम्भ॑नीः। तास्त्वं जु॑षस्व॒ प्रति॑ चैना गृहाण जातवेदः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता: । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइध॑: । पि॒शा॒च॒ऽजम्भ॑नी: । ता: । त्वम् । जु॒ष॒स्व॒ । प्रति॑ । च॒ । ए॒ना॒: । गृ॒हा॒ण॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: ॥२९.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतास्ते अग्ने समिधः पिशाचजम्भनीः। तास्त्वं जुषस्व प्रति चैना गृहाण जातवेदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता: । ते । अग्ने । सम्ऽइध: । पिशाचऽजम्भनी: । ता: । त्वम् । जुषस्व । प्रति । च । एना: । गृहाण । जातऽवेद: ॥२९.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (ते) तेरे (एताः) यह (समिधः) विद्यादि की प्रकाशक्रियायें (पिशाचजम्भनीः) मांसभक्षक [प्राणियों वा रोगों] की नाश करनेवाली हैं। (जातवेदः) हे विद्या में प्रसिद्ध ! (त्वम्) तू (ताः) उन से (जुषस्व) प्रसन्न हो, (च) और (एनाः) इनको (प्रति गृहाण) प्रतीति से अङ्गीकार कर ॥१४॥

    भावार्थ - विद्वान् पुरुष विद्या द्वारा दुःखदायी प्राणी और रोगों का नाश करे और धर्मकार्य में सदा प्रवृत्त रहे ॥१४॥

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