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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 14
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - स्वराट् जगती, स्वरः - निषादः
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    शर्मा॒स्यव॑धूत॒ꣳ रक्षोऽव॑धूता॒ऽअरा॑त॒योऽदि॑त्या॒स्त्वग॑सि॒ प्रति॒ त्वादि॑तिर्वेत्तु। अद्रि॑रसि वानस्प॒त्यो ग्रावा॑सि पृ॒थुबु॑ध्नः॒ प्रति॒ त्वादि॑त्या॒स्त्वग्वे॑त्तु॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शर्म॑। अ॒सि॒। अव॑धूत॒मित्यव॑ऽधूतम्। रक्षः॑। अव॑धूता॒ इत्यव॑धूताः। अरा॑तयः। अदि॑त्याः। त्वक्। अ॒सि॒। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑तिः। वे॒त्तु॒। अद्रिः॑। अ॒सि॒। वा॒न॒स्प॒त्यः। ग्रावा॑। अ॒सि॒। पृ॒थुबु॑ध्न॒ इति॑ पृ॒थुबु॑ध्नः। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑त्याः। त्वक्। वे॒त्तु॒ ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शर्मास्यवधूतँ रक्षोवधूताऽअरातयोदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु । अद्रिरसि वानस्पत्यो ग्रावासि पृथुबुध्नः प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शर्म। असि। अवधूतमित्यवऽधूतम्। रक्षः। अवधूता इत्यवधूताः। अरातयः। अदित्याः। त्वक्। असि। प्रति। त्वा। अदितिः। वेत्तु। अद्रिः। असि। वानस्पत्यः। ग्रावा। असि। पृथुबुध्न इति पृथुबुध्नः। प्रति। त्वा। अदित्याः। त्वक्। वेत्तु॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 14
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    भाषार्थ -

    हे मनुष्यो! तुम्हारा घर (शर्म) सुखकारक घर (असि) हो, उस घर से (रक्षः) दुष्ट स्वभाव वाले प्राणी (अवधूतम्) दूर रहें (अरातयः) दानशीलता से रहित शत्रु (अवधूताः) दूर रहें। और वह घर (अदित्याः) पृथिवी की (त्वक्) त्वचा के समान (असि) हो, इस प्रकार सब मनुष्य (प्रतिवेत्तु) जानें।

    जो (वानस्पत्यः) वनस्पति से उत्पन्न होने वाला रसमय (अद्रिः) मेघ है, और जो (पृथुबुध्नः) विस्तृत आकाश में निवास करने वाला (ग्रावा) जल को ग्रहण करने वाला मेघ (असि) है, इस मेघविद्या को (अदितिः) नाशरहित जगदीश्वर तुझे (वेत्तु) कृपा करके जनावें।

    विद्वान् पुरुष भी (अदित्याः) आकाश के [त्वक्] त्वचा के समान (त्वा) उस व्यवहार को (प्रतिवेत्तु) समझें तथा अन्यों को भी समझावें॥१॥१४॥

    भावार्थ -

    ईश्वर आज्ञा देता है--मनुष्य शुद्ध एवं सब ओर से अवकाशयुक्त पृथिवी पर सब ऋतुओं में सुखदायक घर बनाकर वहाँ सुख से रहें।

    उस घर से सब दुष्ट मनुष्यों औार दोषों को दूर हटावें ओर वहाँ सब साधनों को भी स्थापित करें और वहीं वृष्टि के हेतु यज्ञ का अनुष्ठान करके सुखों को सिद्ध करें।

    भाष्यसार -

    १.यज्ञ-- गृह निर्माण रूप शिल्प यज्ञ सुखदायक है। जैसे त्वचा शरीर की रक्षा करती है, उसी प्रकार पृथिवी पर रहने वाले प्राणियों के लिए घर त्वचा के समान है। यज्ञ से दुष्ट स्वभाव वाले जन्तु घर से नष्ट हो जाते हैं तथा शत्रु भी दूर  भाग जाते हैं।

    २. ईश्वर-प्रार्थना-- जल से भरा हुआ मेघ वनस्पतियों से उत्पन्न होता है, विस्तृत आकाश उसका निवास-स्थान है। इस मेघविद्या का हे जगदीश्वर! कृपा करके उपदेश कीजिये। ३. मेघ आकाश की त्वचा के समान है। विद्वान् लोग भी इस मेघविद्या को समझें।

    विशेष -

    परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। स्वराड् जगती। निषादः।।

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