यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 30
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृत् जगती,
स्वरः - निषादः
9
अदि॑त्यै॒ रास्ना॑सि॒ विष्णो॑र्वे॒ष्पोस्यू॒र्ज्जे त्वाऽद॑ब्धेन॒ त्वा॒ चक्षु॒षाव॑पश्यामि। अ॒ग्नेर्जि॒ह्वासि॑ सु॒हूर्दे॒वेभ्यो॒ धाम्ने॑ धाम्ने मे भव॒ यजु॑षे यजुषे॥३०॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑त्यै। रास्ना॑। अ॒सि॒। विष्णोः॑। वे॒ष्पः। अ॒सि॒। ऊ॒र्ज्जे। त्वा॒। अद॑ब्धेन। त्वा॒। चक्षु॑षा। अव॑। प॒श्या॒मि॒। अ॒ग्नेः। जि॒ह्वा। अ॒सि॒। सु॒हूरिति सु॒ऽहूः॑। दे॒वेभ्यः॑। धाम्ने॑। धाम्न॒ऽइति॒ धाम्ने॑ धाम्ने। मे॒। भ॒व॒। यजु॑षे यजुष॒ऽइति॒ यजु॑षे यजुषे ॥३०॥
स्वर रहित मन्त्र
अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्पोस्यूर्जे त्वादब्धेन त्वा चक्षुषावपश्यामि । अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेभ्यो धाम्नेधाम्ने मे भव यजुषेयजुषे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अदित्यै। रास्ना। असि। विष्णोः। वेष्पः। असि। ऊर्ज्जे। त्वा। अदब्धेन। त्वा। चक्षुषा। अव। पश्यामि। अग्नेः। जिह्वा। असि। सुहूरिति सुऽहूः। देवेभ्यः। धाम्ने। धाम्नऽइति धाम्ने धाम्ने। मे। भव। यजुषे यजुषऽइति यजुषे यजुषे॥३०॥
विषय - फिर उक्त यज्ञ किस प्रकार का और किस फल का देने वाला होता है, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
हे जगदीश्वर! जो आप [आदित्यै] पृथिवी के (रास्ना) पदार्थों को रसयुक्त करने वाले (असि) हो, [विष्णोः]व्यापक ईश्वर (असि) हो , (वेष्पः)पृथिवी वा अन्तरिक्ष को व्याप्त करने वाले ज्ञानभण्डार (असि) हो, (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (जिह्वा) रस को जानने वाले (असि) हो, (देवेभ्यः) विद्वानों वा दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये, (धाम्ने धाम्ने) वस्तुओं और सुखों के प्रत्येक आधार की प्राप्ति के लिये, (यजुषे यजुषे) यज्ञ करने के साधन प्रत्येक यजुर्वेद के मन्त्र के लिये (सुहूः) उत्तम हवन सामग्री (असि) हो।
इस प्रकार के [त्वा] आपको मैं (अदब्धेन) सुख युक्त (चक्षुषा) विज्ञान एवं प्रत्यक्ष प्रमाण रूप नेत्र से (ऊर्जे) अन्न, रस और पराक्रम की प्राप्ति के लिये (आदित्यै) पृथिवी वा अन्तरिक्ष के (देवेभ्यः) विद्वानों वा दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए (धाम्ने धाम्ने) वस्तुओं और सुखों के प्रत्येक आधार की प्राप्ति के लिये और (यजुषे यजुषे) यश के साधन प्रत्येक यजुर्वेद के मन्त्र के ज्ञान के लिये (अवपश्यामि) उत्तम रीति से देखता हूँ। और आप सर्वत्र कृपा करके (मे) मेरे लिए विदित और पूजित होओ॥ यह मन्त्र का पहला अन्वय
है॥
दूसरा अन्वय-- जिस कारण यह यज्ञ [आदित्यै] अन्तरिक्ष को (रास्ना) रस युक्त करने वाला (असि) है, (विष्णोः) यज्ञ का (वेष्पः) पृथिवी वा अन्तरिक्ष को व्याप्त करने वाला यज्ञ से उत्पन्न वाप्ष (भांप) रूप [असि] है, (अग्नैः) भौतिक अग्नि के (जिह्वा) रसों को ग्रहण करने वाला [असि] है (देवेभ्यः) विद्वानों वा दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (धाम्ने धाम्ने) वस्तुओं और सुखों के प्रत्येक आधार की प्राप्ति के लिये, (यजुषे यजुषे) यज्ञ के साधन यजुर्वेद के प्रत्येक मन्त्र के लिये (सुहूः) उत्तम हवन सामग्री [भव] बनता है। इसलिये उस यज्ञ को मैं (अदब्धेन) सुखयुक्त (चक्षुषा) विज्ञान एवं प्रत्यक्ष प्रमाण के साधन नेत्र से (ऊर्जे) अन्न, रस और पराक्रम की प्राप्ति के लिये (अवपश्यामि) देखता हूँ, तथा--(अदित्यै) पृथिवी वा अन्तरिक्ष के (देवेभ्यः) विद्वानों वा दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये (धाम्ने धाम्ने) वस्तुओं वा सुखों के प्रत्येक आधार की प्राप्ति के लिए (यजुषे यजुषे) यज्ञ के साधन प्रत्येक यजुर्वेद के मन्त्र को धारण करने के लिये (अवपश्यामि) उत्तम रीति से देखता हूँ॥१।३०॥
भावार्थ -
इस मन्त्र में श्लेष अलंकार है॥ सब मनुष्यों को ऐसा मानना चाहिये कि यह जगदीश्वर, प्रत्येक वस्तु में स्थित है, वेदों मे प्रतिपादित है, और पूजा के योग्य है। और--यह यज्ञ प्रत्येक मन्त्र से विधिपूर्वक किया हुआ सब प्राणियों के लिये प्रत्येक वस्तु में पराक्रम और बल देने वाला होता है॥ १।३०॥
भाष्यसार -
१. ईश्वर--पृथिवी पर रसयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करने वाला, सर्वव्यापक, ज्ञानस्वरूप, अग्नि आदि पदार्थों के तत्त्व को जानने वाला, विद्वानों वा दिव्यगुणों की प्राप्ति कराने वाला है, प्रत्येक धाम और प्रत्येक यजुर्वेद के मन्त्र को उत्तम रीति से देने वाला है॥
२. ईश्वर दर्शन--उक्त गुणों वाले ईश्वर को सुखदायक, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से युक्त, विज्ञान के नेत्र से देखें। ईश्वर दर्शन से हीसब प्रकार का बल, दिव्यगुण, विद्वत्संग, प्रत्येक धाम तथा प्रत्येक यजुर्मन्त्र की उपलब्धि होती है॥
३. यज्ञ--यज्ञ ऐसी क्रिया है जो पृथिवी और आकाश के पदार्थों को रस से युक्त कर देती है। यज्ञ से उत्थित वाष्प पृथिवी और अन्तरिक्ष को वेष्टित कर लेता है। इसलिए इसको पृथिवी और अन्तरिक्ष की त्वचा कहा गया है। यह यज्ञ भौतिक अग्नि की जिह्वा है। यज्ञ से ही अग्नि जिह्वा के समान पदार्थों को ग्रहण करती है और हव्य-द्रव्यों के गुणों को वितरित करती है। यज्ञ से विद्वानों की पूजा, उनका संग तथा उनको दान आदि का सब व्यवहार सिद्ध होता है। यज्ञसे ही दिव्य गुणों की प्राप्ति होती है। यज्ञ प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक सुख कादेने वाला है। प्रत्येक यजुर्वेद के मन्त्र का ज्ञान भी यज्ञ से ही होता है। इसलिये अन्न,रस और बल की प्राप्त के लिये परम सुखदायक विज्ञान के नेत्र से इस यज्ञ विद्या को समझें॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः =स्पष्टम्। निचृज्जगती। निषादः॥
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