यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
8
अह्रु॑तमसि हवि॒र्धानं॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्। विष्णु॑स्त्वा क्रमतामु॒रु वाता॒याप॑हत॒ꣳरक्षो॒ यच्छ॑न्तां॒ पञ्च॑॥९॥
स्वर सहित पद पाठअह्रु॑तम्। अ॒सि॒। ह॒वि॒र्धान॒मिति॑ हविः॒ऽधान॑म्। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः॒। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त्। विष्णुः॑। त्वा॒। क्र॒म॒तां॒। उ॒रु। वाता॒य। अप॑हत॒मित्यप॑ऽहतम्। रक्षः॑। यच्छ॑न्ताम्। पञ्च॑ ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
अह्रुतमसि हविर्धानं दृँहस्व मा ह्वार्मा यज्ञपतिर्ह्वार्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायापहतँ रक्षो यच्छन्तांम्पञ्च ॥
स्वर रहित पद पाठ
अह्रुतम्। असि। हविर्धानमिति हविःऽधानम्। दृꣳहस्व। मा। ह्वाः। मा। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। ह्वार्षीत्। विष्णुः। त्वा। क्रमतां। उरु। वाताय। अपहतमित्यपऽहतम्। रक्षः। यच्छन्ताम्। पञ्च॥९॥
विषय - अब यजमान और भौतिक अग्नि के कर्म का उपदेश किया जाता है।
भाषार्थ -
हे ऋत्विक्! तू जो अग्नि से बढ़ा हुआ (अह्नुतम्) कुटिलता रहित (हविर्धानम्) हवियों का आधार यज्ञ (असि) है , उसे (दृंहस्व) बढ़ा, किन्तु उसे किसी काल में भी (मा हाः) मत छोड़। और इसे (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यजमान भी (मा ह्वार्षीत्) न छोडे़।
इस प्रकार सब मनुष्य [पञ्च] उत्क्षेपणादि पाँच कर्मों के द्वारा अग्नि में हवन करने योग्य द्रव्यों को (नि+यच्छन्ताम्) ग्रहण करें। उस हवन किए हुए द्रव्य को (विष्णुः) व्यापनशील सूर्य (अपहतं रक्षः) दुर्गन्ध आदि दुःखरूप जाल का नाश करके (उरु) अत्यधिक (वाताय) वायु की शुद्धि के लिए (क्रमताम्) आकाश में फैलाता है।
(त्वा) उस होम के योग्य द्रव्य को सब मनुष्य होम के द्वारा (यच्छन्ताम्) ग्रहण करें॥१॥९॥
भावार्थ -
जब मनुष्य परस्पर प्रीति से कुटिलता को छोड़ कर, शिक्षक और शिष्य बन कर इस अग्नि-विद्या को विज्ञान और क्रिया से जानकर, आचरण करते हैं, तब महान् शिल्पविद्या को सिद्ध करके—
शत्रु और दरिद्रता को दूर भगाकर सब सुखों को प्राप्त करते हैं॥१॥९॥
भाष्यसार -
१. यजमान का कृत्य--कुटिलता को छोड़कर यज्ञ को बढ़ाये, यज्ञ को कभी न छोडे़। पाँच कर्मों से अग्नि में होम किये द्रव्य को ग्रहण करे।
२. पंच कर्म--अत्क्षेपण=ऊपर को चेष्टा करना। अवक्षेपण=नीचे को चेष्टा करना। आकुंचनम्=सिकोड़ना। प्रसारणम्=फैलाना। गमन=चलना॥
३. भौतिक अग्नि (सूर्य) का कृत्य--व्यापनशील होने से सूर्य का नाम विष्णु है। सूर्य होम किये हुए द्रव्य को दुर्गन्ध आदि दुःखों को नष्ट करने, वायु की शुद्धि और सुखवृद्धि के लिये आकाश में फैलाता है॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णुः=सूर्यः। निचृत्। त्रिष्टुप्ः। धैवतः।।
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