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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 15
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - ऋतवो देवताः छन्दः - स्वराडुत्कृतिः स्वरः - षड्जः
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    नभ॑श्च नभ॒स्यश्च॒ वार्षि॑कावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्रताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। वार्षि॑कावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नभः॑। च॒। न॒भ॒स्यः᳖। च॒। वार्षि॑कौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। इ॒मेऽइ॒ती॒मे। वार्षि॑कौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भिऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वेऽइति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू अग्नेरन्तः श्लेषो सि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पन्तामापऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे वार्षिकावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवाऽअभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नभः। च। नभस्यः। च। वार्षिकौ। ऋतूऽइत्यृतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। इमेऽइतीमे। वार्षिकौ। ऋतूऽइत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिऽसंविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवेऽइति ध्रुवे। सीदतम्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    १. हे पति पत्नि ! (नभः च) = तुम नभ बनो। निरुक्त के अनुसार तुम ('नेता भासाम्') = दीप्तियों के प्रणयन करनेवाले बनो। अपने को ज्ञान की दीप्ति से भरने का प्रयत्न करो। इसी से (नभस्यः) = [नभसि साधुः, नभ हिंसायाम्] सब बुराइयों के काम, क्रोध, लोभ के हिंसन में तुम समर्थ बनोगे। संक्षेप में अपने को ज्ञान से परिपूर्ण करो और बुराइयों को समाप्त कर दो। २. इस प्रकार बुराइयों को समाप्त करके (वार्षिकौ) = एक-दूसरे पर आनन्द की वर्षा करनेवाले बनो। (ऋतू) = तुम दोनों पति-पत्नी का जीवन नियमित गतिवाला हो [ऋ + गतौ] । जिस प्रकार ऋतुएँ अपने समय पर आती हैं, उसी प्रकार तुम अपने कार्य को समयानुसार करनेवाले बनो। ३. ऐसा बनने पर ही तुम अग्नेः = प्रभु को अन्तः = हृदयान्तरिक्ष में श्लेषः असि = आलिङ्गन करनेवाले होते हो। ४. प्रभु के सम्पर्क में रहने से (द्यावापृथिवी) = तुम्हारे मस्तिष्क व शरीर (कल्पेताम्) = सामर्थ्य-सम्पन्न बनें। ५. इसके लिए (आपः ओषधयः कल्पन्ताम्) = जल और ओषधियाँ तुम्हारे लिए शक्तिशाली हों । ६. अग्नयः = माता [दक्षिणाग्नि], पिता [गार्हपत्य अग्नि] व आचार्य [ आहवनीय अग्नि] = ये सब (सव्रताः) = समान व्रतवाले होकर (मम ज्यैष्ठ्याय) = मेरी ज्येष्ठता के लिए (पृथक्) = अलग-अलग, पाँच वर्ष तक माता, आठ वर्ष तक पिता आचरण व शिष्टाचार को तथा आचार्य मेरे ज्ञान को उन्नत करके मेरी ज्येष्ठता को सिद्ध करनेवाले हों। ७. वस्तुत: (इमे द्यावापृथिवी अन्तरा) = इस द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में (ये अग्नयः) = जो भी माता-पिता व आचार्य हैं, वे (समनसः) = समान मनवाले हों। उनकी एक ही भावना हो कि हमें राष्ट्र के इन भावी नागरिकों को ज्येष्ठ बनाना है, खूब उन्नत करना है। ८. जब इस प्रकार उन्नत होकर व्यक्ति गृहस्थ में प्रवेश करेंगे तभी वे (वार्षिकौ) = आनन्द की वर्षा करनेवाले होंगे (ऋतू) = नियमित जीवनवाले होंगे तथा (अभिकल्पमाना) = शरीर व बौद्धिक उन्नति करनेवाले होंगे। शरीर व बुद्धि दोनों को शक्तिशाली बनाएँगे। इस लोक व परलोक दोनों को सफल करेंगे। शरीर व आत्मा दोनों का ध्यान करेंगे। ९. (इन्द्रम् इव) = जितेन्द्रियता के द्वारा इन्द्र के समान बने हुए इनको (देवाः) = सब देव (अभिसंविशन्तु) = प्राप्त हों। इनके अन्दर सारी अच्छाइयाँ हों। १०. ऐसे बने हुए ये पति-पत्नी तया (देवतया) = उस परमात्मा के साथ, देव बनकर महादेव के साथ रहते हुए, अर्थात् सशक्त शरीरवाले होते हुए (ध्रुवे) = ध्रुव बनकर - मर्यादित व स्थिर जीवनवाले होते हुए (सीदतम्) = इस घर में बैठें। इनका जीवन मर्यादामय व शान्त [still - स्थिर] हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- पति-पत्नी ज्ञान ज्योतियों का प्रणयन करनेवाले तथा बुराइयों को समाप्त करनेवालों में उत्तम बनकर, प्रभु- सम्पर्क से अपने को शक्ति सम्पन्न करते हुए, ध्रुवता से, मर्यादा व शान्ति से घर में निवास करें।

    - सूचना - नभ:- श्रावण मास का नाम है, नभस्य = भाद्रपद का, श्रवण ही ज्ञान-प्रणयन का उपाय है। बुराइयों को समाप्त करना ही भद्र का पद = कल्याण का मार्ग है।

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