यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 5
ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः
देवता - एकरूद्रो देवता
छन्दः - भुरिगार्षी बृहती
स्वरः - मध्यमः
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अध्य॑वोचदधिव॒क्ता प्र॑थ॒मो दैव्यो॑ भि॒षक्। अही॑ श्चँ॒ सर्वा॑ञ्ज॒म्भय॒न्त्सर्वा॑श्च यातुधा॒न्योऽध॒राचीः॒ परा॑ सुव॥५॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑। अ॒वो॒च॒त्। अ॒धि॒व॒क्तेत्य॑धिऽव॒क्ता। प्र॒थ॒मः। दैव्यः॑। भि॒षक्। अही॑न्। च॒। सर्वा॑न्। ज॒म्भय॑न्। सर्वाः॑। च॒। या॒तु॒धा॒न्य᳖ इति॑ यातुऽधा॒न्यः᳖। अ॒ध॒राचीः॑। परा॑। सु॒व॒ ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्यो धराचीः परा सुव ॥
स्वर रहित पद पाठ
अधि। अवोचत्। अधिवक्तेत्यधिऽवक्ता। प्रथमः। दैव्यः। भिषक्। अहीन्। च। सर्वान्। जम्भयन्। सर्वाः। च। यातुधान्य इति यातुऽधान्यः। अधराचीः। परा। सुव॥५॥
विषय - प्रथम दैव्य भिषक्
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में आधि-व्याधियों के दूरीकरण का प्रसङ्ग था । इन आधि-व्याधियों को दूर करनेवाला (प्रथमः) = सबसे पहला (दैव्यः) = मन में दिव्य गुणों को उत्पन्न करनेवाला तथा (भिषक्) = शरीर के रोगों का प्रतीकार करनेवाला वह प्रभु ही (अधिवक्ता) = [अधि= उपरिभाव व ऐश्वर्य का वाचक है] सबसे श्रेष्ठ उपदेष्टा है, वह गुरुओं का भी गुरु है 'सर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्' [योगदर्शन] । वह पूर्ण ज्ञानी होने से ऐश्वर्य के साथ, पूर्ण प्रभुत्व [full mastery] के साथ बोलनेवाला है। उसके प्रतिपादन में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं है । २. वह प्रभु (अध्यवोचत्) = हमें आधिक्येन उपदेश करे, हमें खूब ही प्रेरणा प्राप्त कराता रहे। ३. हे प्रभो! आप हमारे मनों से (सर्वान् अहीन् च) = सब कुटिल वृत्तियों को [साँप कुटिलता का प्रतीक है] अथवा [आहन्ति] सब हिंसावृत्तियों को (जम्भयन्) = नष्ट करते हुए (सर्वाः च यातुधान्य:) = एक-दूसरे से बढ़कर पीड़ा [यातु] का आधान करनेवाली [धानी ] सब बीमारियों को (अधराची:) [अधः अञ्चति] = अधोगमनशील करके (परा सुव) = हमसे दूर कर दीजिए। ४. यहाँ ' अधराची:' शब्द के महत्त्व को समझना चाहिए। सब रोग शरीर में मल - सञ्चित हो जाने से होते हैं। विरेचन के द्वारा इन्हें शरीर से पृथक् करना चाहिए। मल गया, रोग गया। एवं विरेचन रोग को दूर भगाने में अत्यन्त सहायक है। ४. मलों के दूरीकरण से शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए मनों से कुटिलवृत्ति व हिंसा की वृत्ति को दूर करना है। यह स्वस्थ मन व स्वस्थ शरीरवाला व्यक्ति ही 'बृहस्पति' है, ऊर्ध्वा दिक् का अधिपति है, यही तो सर्वोच्च स्थिति है।
भावार्थ - भावार्थ- हे प्रभो! आप ही अधिवक्ता हैं, प्रथम दैव्य भिषक् हैं। आप हमारे मनों से कुटिलता व हिंसा को भगाकर स्वस्थ कीजिए तथा रोगों को दूर करके शरीर की पीड़ा को दूर कीजिए।
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